संविधान निर्माता, जिसने बदल दी सामाजिक न्याय की परिभाषा

एक बार अपनी जाति की वजह से डेढ़ दिन तक भीमराव अंबेडकर को प्यासा रहना पड़ा था। बात तब की है, जब उनके पिता रामजी सूबेदार की नियुक्ति गोरेगांव के पास हो गई थी। अंबेडकर अपने बड़े भाई और भान्जों के साथ रेलगाड़ी से गोरेगांव तो पहुंच गए, लेकिन स्टेशन से उस गांव तक पहुंचने के लिए उनको कड़ी मशक्कत का सामना करना पड़ा। कोई भी बैलगाड़ी वाला उन्हें अपनी गाड़ी में बैठाने के लिए तैयार नहीं था।

Bhimrao Ambedkar

महिला शिक्षा और न्याय, जीवन के तेरे पर्याय,

लोकतंत्र की रखी आन, दे कर समता का संविधान,

मानवता की तू आंधी था, दलितों का तू गांधी था।

ये पंक्तियां एक ऐसी शख्सियत बयान करती हैं, जिसे ‘फादर ऑफ इंडियन कंस्टिच्यूशन’ कहा जाता है। नाम है डॉ. भीम राव अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar)। छुआछूत और असमानता को मिटाने में उनके योगदान को देश कभी नहीं भूल सकता। डॉ. अंबेडकर एक मनीषी थे, विद्वान थे, दार्शनिक थे, समाजसेवी थे, देशभक्त थे, आजादी के परवाने थे, संविधान निर्माता थे। बहुत ही गुणी और अद्वितीय प्रतिभा वाले शख्स थे।

Bhimrao ambedkar

बचपन से ही झेल रहे थे दलित होने का दंश

भीमराव अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को इंदौर के महू में हुआ था। भीमराव के पिताजी रामजी फौज में सूबेदार थे और मां का नाम था भीमाबाई सखपाल। वे दलित बिरादरी से आते थे, जिन्हें उन दिनों अछूत कहा जाता था। सामाजिक, आर्थिक हर रूप में उनके साथ बहुत भेद-भाव होता था, शोषण होता था। पिता लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते हुए अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ने और कड़ी मेहनत के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया करते थे। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद अंबेडकर और उनके दलित बच्चों को विद्यालय में अलग बिठाया जाता था। अध्यापक भी उनकी बातों, उनकी पढ़ाई-लिखाई पर कोई खास ध्यान नहीं देते थे। कई बार तो कक्षा के अंदर तक बैठने की अनुमति नहीं होती थी। प्यास लगती थी तो ऊंची जाति का कोई आता था, ऊंचाई से पानी डालता था, वो हाथों से अंजलि बनाते थे और फिर पानी पीते थे। आमतौर पर उनको पानी पिलाने का काम भी स्कूल के चपरासी का ही होता था और अगर चपरासी अब्सेंट हुआ तो दलित बच्चों को, जिसमें अंबेडकर जी भी शामिल थे, बिना पानी के ही दिन गुजारना पड़ता था। बाद में डॉ. अंबेडकर ने अपने संस्करणों में इसका वर्णन काफी विस्तार से किया था और उसका शीर्षक दिया था- न चपरासी, न पानी। छुआछूत की भावना के चलते इन बच्चों का कक्षा में हर बात पर शोषण होता था, उनको नीचा दिखाया जाता था। एक बार क्लास में टीचर ने भीमराव अंबेडकर को गणित का एक प्रश्न हल करने के लिए ब्लैकबोर्ड के पास बुलाया। इस बात पर क्लास में बवाल मच गया। ऊंची जाति के विद्यार्थियों ने कहा कि ब्लैकबोर्ड के पास तो उनके खाने के डिब्बे रखे हैं। तो पहले खाने के सारे डिब्बों को वहां से हटाया गया, फिर भीमराव ने उस सवाल को हल किया।

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चिलचिलाती गर्मी में बिना पानी के गुजारे डेढ़ दिन

एक बार अपनी जाति की वजह से डेढ़ दिन तक भीमराव अंबेडकर को प्यासा रहना पड़ा था। बात तब की है, जब उनके पिता रामजी सूबेदार की नियुक्ति गोरेगांव के पास हो गई थी। अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) अपने बड़े भाई और भान्जों के साथ रेलगाड़ी से गोरेगांव तो पहुंच गए, लेकिन स्टेशन से उस गांव तक पहुंचने के लिए उनको कड़ी मशक्कत का सामना करना पड़ा। कोई भी बैलगाड़ी वाला उन्हें अपनी गाड़ी में बैठाने के लिए तैयार नहीं था। क्योंकि सभी बैलगाड़ी चालक, बैलगाड़ी हांकने वाले ऊंची जाति के थे। अब वे नीची जाति के लोगों को अपनी बैलगाड़ी में कैसे बिठा कर ले जाएं? आखिरकार, बच्चों के विनती करने पर बड़ी मुश्किल से एक बैलगाड़ी वाला माना। लेकिन उसने भी एक शर्त रख दी। उसका कहना था कि अछूत बच्चों को अपनी बैलगाड़ी में वो ले तो जाएगा, लेकिन बैलगाड़ी वो नहीं हांकेगा। बैलगाड़ी बच्चों को ही हांकनी पड़ेगी। फिर भीमराव अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) ने बैलगाड़ी हांकी और बड़ी मुश्किल से ये सफर उन्होंने तय किया। सफर में एक कठिनाई और भी आई। डेढ़ दिन का सफर था और बिना पानी पिए सबको गुजारना पड़ा। क्योंकि उनके अछूत होने की वजह से रस्ते में पड़ने वाले किसी भी कुएं से उनको पानी नहीं पीने दिया गया। बड़ी मुश्किल से अगले दिन शाम तक भूखे-प्यासे, अधमरे से भीम और उनके साथी बच्चे अपने गंतव्य स्थल पर पिताजी के पास पहुंच पाए। खैर ये स्थिति तो वो थी जब करीब-करीब जान पर ही बन आई थी। रोजमर्रा की जिंदगी में भी बहुत जिल्लत सहनी पड़ती थी भीमराव और उनके साथी बच्चों को। कोई नाई-हजाम उनके बाल काटने को तैयार नहीं होता था। भीमराव की बड़ी बहन ही उनके बाल काटा करती थीं।

शिक्षक से मिला अंबेडकर उपनाम

भीमराव सखपाल का नाम भीमराव अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) कैसे पड़ा, उसके पीछे भी एक बहुत दिलचस्प कहानी है। भीमराव के स्कूल में एक टीचर थे, जो ब्राह्मण थे। उनका नाम था, महादेव अंबेडकर। महादेव अंबेडकर भीमराव से विशेष स्नेह रखते थे, उन्हें बहुत प्यार करते थे। रोज दोपहर छुट्टी के बाद महादेव अंबेडकर न सिर्फ भीमराव को पढ़ाते थे, बल्कि दोपहर का भोजन भी देते थे। इसी ब्राह्मण शिक्षक के कहने पर भीमराव ने अपने नाम से सखपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया था। जो उनके गांव के नाम अंबावाड़े से भी जुड़ हुआ था। आगे जाकर भीमराव सखपाल को दुनिया ने भीमराव अंबेडकर के नाम से जाना और पहचाना।

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किताबों से थी गहरी दोस्ती

1907 में मैट्रीक और अलफिन्सटन कॉलेज से भीमराव ने इंटर की परीक्षा पास की। जब 1906 में अल्फिन्सटन कॉलेज में एडमिशन हुआ था, तो वो पहले अछूत बच्चे थे जिनको इस प्रेस्टिजियस कॉलेज में दाखिला मिला था। अल्फिन्सटन कॉलज से पास होने बाद उन्हें बरोड़ा के सयाजीराव तृतीय ने अमेरिका जाने के लिए 25 रूपए महीने की स्कॉलरशिप दी । इसी स्कॉलरशिप के जरिए वो न्यूयॉर्क पहुंचे। 1912 में उन्होंने न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी से बीए पास किया, 1915 में एमए की डिग्री हासिल की। फिर कोलंबिया विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की डिग्री अर्जित की। इसके बाद उनका वजीफा बंद कर दिया गया। ये भीमराव अंबेडकर के लिए बड़ी परेशानी की बात थी। इसके बाद वो लंदन पहुंचे और वहां उन्होंने वकालत की पढ़ाई पूरी की। इस पूरे दौर में उन्होंने बड़ी मुसीबतें झेलीं। उनके पास खाने-पीने तक के लिए पैसे नहीं होते थे। लेकिन किताबें खरीदने का शौक उनमें जबरदस्त था। जब वो अमेरिका से लंदन गए तो उन्होंने एक दोस्त को भारत ले जाने के लिए एक संदूक में 2000 किताबें दी और लंदन जा कर भी उनकी फेवरेट डेस्टिनेशन रही लंदन की मशहूर लाइब्रेरी। वो ज्यादातर किताबों में ही डूबे पाए जाते थे। अपनी पढ़ाई में इतने तल्लीन रहते थे कि कई बार तो लंदन यूनिवर्सिटी का चौकीदार उन्हें याद दिलाता था कि लाइब्रेरी बंद हो गई है। सुबह से रात लाइब्रेरी में पढ़ने के बाद पूरी रात वो लंदन में अपने कमरे में अध्ययन का काम करते थे। कोई उन्हें सोने के लिए कहता तो अंबेडकर का जवाब होता था, मेरे पास न खाने के लिए पैसा है, न सोने के लिए समय, मुझे तो बस अपनी पढ़ाई जल्द से जल्द पूरी करनी है और ज्यादा से ज्यादा पढ़ना है। एक हजार दिनों में उन्होंने 1600 पुस्तकें उस लाइब्रेरी में पढ़ीं, जो आज तक एक रिकॉर्ड माना जाता है। डॉ. अंबेडकर के पास इतना जबरदस्त किताबों का कलेक्शन था कि एक इंटरनेशनल लाइब्रेरी बन जाए। जब उन्होंने मुंबई के दादर मेंअपना घर बनवाया तो वो घर कम, लाइब्रेरी ज्यादा लगता था।

गांधीजी जी से मतभेद

आखिर ऐसे क्या कारण उत्पन्न हो गए कि हमारे स्वतंत्रता-संग्राम के दो बड़े दिग्गज महात्मा गांधी और डॉ. अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल कर बैठ गए। बात इतनी बढ़ गई कि महात्मा गांधी को आमरण अनशन पर बैठना पड़ा। हुआ ये कि अपनी वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद अंबेडकर पूरी तरह से समाज-सेवा और सार्वजनिक जीवन में आ गए थे। छुआछूत के खिलाफ उन्होंने मुहिम छेड़ दी थी। क्योंकि वो चाहते थे कि इस कुरीति का पूरी तरह से खात्मा हो जाए। दलितों के वो आईकॉन बन गए। दलित हितों के, दलित अधिकारों के सबसे बड़े प्रतिनिधि देश में डॉ. बाबा साहब अंबेडकर बन चुके थे। 1924 में उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की जिसका उद्देश्य था, छुआछूत को दूर करना। फिर उन्हें 1929 में लेजिस्लेटिव काउंसिल में दलितों के हितों का ध्यान रखने के लिए मनोनीत किया गया।

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1930 में हुए गोलमेज सम्मेलन में अंबेडकर जी ने ये मांग रखी कि संविधान निर्माण में और लेजिस्लेटिव काउंसिल्स में दलितों और अल्पसंख्यकों का अलग से प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इस मांग को अंग्रेज तो मान गए लेकिन गांधीजी इसके खिलाफ थे, उन्हें ये कॉन्सेप्ट सेपरेट-इलेक्टोरेट्स को बढ़ावा देने वाला और जाति-धर्म के आधार पर मतदाताओं को और राजनेताओं को बांटने वाला लगा। उनका मानना था कि इसकी वजह से हिंदू समाज कई टुकड़ों में बंट जाएगा। लेकिन बाबा साहब अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) अपनी मांग पर अड़े रहे। उनका मानना था कि चाहे जो भी तरीका हो, दलितों का उत्थान होना चाहिए, उन्हें न्याय मिलना चाहिए। बस इस मुद्दे पर गांधीजी ने जमकर विरोध किया डॉ. अंबेडकर का। गांधीजी उस वक्यत यरवडा जेल में थे, वहीं पर उन्होंने अंबेडकर के इस कॉन्सेप्ट के खिलाफ आमरण अनशन शुरु कर दिया। बड़ी मुश्किल से गांधीजी को मनाया गया। खुद अंबेडकर और पंडित मदन मोहन मालवीय जेल में गए और गांधीजी का अमशन तुड़वाया। उस समय गांधीजी और अंबेडकर के बीच जो सहमति हुई उसे इतिहास में ‘पूना पैक्ट’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन इसी ‘पूना पैक्ट’ में और इन्हीं गोलमेज सम्मेलनों में नींव रखी गई दलितों के अलग अधिकारों की, उनको सामाजिक न्याय दिलवाने की।

संविधान के निर्माता

देश की आजादी के बाद संविधान की रचना के लिए एक बड़ी हाई-पावर कमिटी का गठन किया। धीरे-धीरे परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं, हालात कुछ ऐसे पैदा हो गए कि सारी जिम्मेदारी अकेले डॉ. बाबा साहब भीमराव अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) के कंधों पर ही आ पड़ी और उन्होंने बड़ी परिपक्वता और इमानदारी से इस बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन किया, बाबा साहब की कड़ी लगन और मेहनत का ही नतीजा है हमारा संविधान, जो तमाम मुश्किलों के बावजूद, तमाम चुनौतियों के बीच आज भी एक जीवंत और प्रासंगिक डॉक्यूमेंट है। संविधान का पहला खाका 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा के विचाराधीन प्रस्तुत किया गया। अपने भाषण का समापन करते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा कि यह संविधान प्रत्यक्ष व्यवहार में लाने योग्य है। बाबा साहब अंबेडकर का कहना था कि यदि संविधान का सही प्रकार से अनुसरण नहीं हो पाता है तो ये कहना होगा कि दोष संविधान का नहीं है, बल्कि उसको इम्प्लीमेंट कर रहे इंसानों में बसे अवगुणों का है।

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अंबेडकर साहब (Bhimrao Ambedkar) की खास बात ये थी कि संविधान के हर अनुच्छेद को वो खुद ही ज्यादातर संविधान सभा में प्रस्तुत करते थे और उसका महत्व समझाते थे। भारतीय संविधान के निर्माण में उनके जबरदस्त योगदान का उल्लेख 5 नवंबर, 1949 को टी टी कृष्णमचारी ने संविधान सभा में अपने भाषण में किया था। टी टी कृष्णमचारी का कहना था कि संविधान का निर्माण करने वाली चुनिंदा 7 सदस्यों की कमिटी में से एक सदस्य ने त्यागपत्र दे दिया, एक का देहांत हो गया, एक अमेरिका चला गया और एक सदस्य रियासतों के कामकाज में व्यस्त रहा। बचे हुए एक-दो सदस्य दिल्ली से दूर रहते थे और उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने की वजह से वो ज्यादातर मिटिंग्स अटेंड नहीं कर पाते थे। बकौल कृष्णमचारी साहब, अंजाम ये हुआ कि संविधान निर्माण करने का सारा भार अकेले डॉ. अंबेडकर को ही उठाना पड़ा।

हिंदू कोड बिल पर अड़े, सामाजिक न्याय के लिए छोड़ी पार्टी

अब बात थी हिंदू कोड-बिल की। आजादी के वक्त हिंदू पुरूषों को भी एक से ज्यादा शादी करने की आजादी थी, लेकिन विधवाएं दोबारा शादी नहीं कर सकती थीं। विधवाओं का संपत्ती में भी कोई अधिकार नहीं था। उस समय नेहरू जी सानाजिक बदलाव की हिमायत कर रहे थे। हिंदू समाज के कर्णधार उसका विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि अगर बदलाव लाना है, सुधार लाना है तो सभीं धर्मों में इकट्ठा लाया जाय। लेकिन नेहरू जी ये चाहते थे कि सबसे पहले जो सुधार लागू किए जाएं वो हिंदुओं के संदर्भ में हों क्योंकि हिंदू बहुसंख्यक थे।

बहरहाल, जब 1951 में सितंबर के महीने में संसद में ये बिल पेश किया गया तो इसका जबरदस्त विरोध हुआ। मौके की नजाकत को देखते हुए प्रधानमंत्री नेहरु ने इस बिल को चार हिस्सों में बांटने की घोषणा कर दी। घोषणा करने से पहले उन्होंने अंबेडकर जी को विश्वास में नहीं लिया जिससे अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) बेहद नाराज हुए। लिहाजा, मंत्रिमंडल और कांग्रेस दोनों से इस्तीफा दे दिया। दरअसल उस वक्त प्राइम मिनिस्टर नेहरु ने संसद की नजाकत को समझते हुए कुछ प्रैक्टिकल अप्रोच अपनाया लेकिन सिद्धातों पर हमेशा अडिग रहने वाले अंबेडकर जी को ये बात रास नहीं आई और उन्होंने अपनी अलग राह पकड़ ली।

दलित हित की चिंता ने उड़ाई नींद

एक और मजेदार किस्सा है कि एकबार कुछ विदेशी जर्नलिस्ट भारत आए। महात्मा गांधी से मिलने का समय लिया, मोहम्मद अली जिन्ना से भी मिलने का समय लिया और बाबा साहेब अंबेडकर से भी। गांधी जी और जिन्ना साहब दोनों ने समय दिया और अंबेडकर जी (Bhimrao Ambedkar) ने कह दिया कि जब आप सबसे फारिग हो जाएं, जब आपके पास वक्त हो तो मुझसे मिलने आ जाइएगा। अब जब पत्रकारों का ये डेलिगेशन तय वक्त पर गांधी जी और जिन्ना साहब से मिलने पहुंचा तो शाम को कुछ देर हो चुकी थी। दोनों ही जगह जवाब मिला कि साहब सो गए हैं, आप कल आइएगा। लेकिन रात करीब 12 बजे वो डॉक्टर अंबेडकर के पास पहुंचे तो अंबेडकर साहब सूट बूट पहने उनका इंतजार कर रहे थे। पत्रकार हैरत में पड़ गए। उन्होंने अंबेडकर साहब से पूछा कि सर आप अभी तक कैसे जाग रहे हैं। बाकी जिन दोनों नेताओं से हम मिलने गए वो तो सो चुके थे। इस पर अंबेडकर साहब ने जो जवाब दिया, उसमें मानो उनकी पूरी सोच छिपी हुई थी। उन्होंने कहा कि मैं समाज के जिस वर्ग को रिप्रजेंट कर रहा हूं वो पूरा वर्ग ही शताब्दियों से सोया हुआ है, इसलिए मुझे जागना पड़ता है।

तो इतना जबर्दस्त कमिटमेंट था अंबेडकर (Bhimrao Ambedkar) में अपने दलित भाइयों के लिए, समाज के उस वर्ग के लिए जिसने सदियों तक सिर्फ शोषण सहा था।

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