
आज के ही दिन 23 अप्रैल 1992 को भारतीय फिल्म जगत का ही नहीं, बल्कि विश्व सिनेमा का एक जाज्वल्यमान नक्षत्र तिरोहित हो गया। अपने प्रशंसकों और प्रियजनों के बीच मानिक दा के नाम से लोकप्रिय सत्यजीत राय (Satyajit Ray) ने भारतीय सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जगत में जिन ऊंचाइयों तक पहुंचाया वह कल्पनातीत हैं। बंगाल के इस महान सपूत की बहुमुखी प्रतिभा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी पहली ही फिल्म पाथेर पांचाली को कुल मिलाकर 12 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। सन 1957 में इस फिल्म को सानफ्रांसिस्को फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला। हालांकि इस फिल्म को निर्माण के लिए उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा पर उन्होंने पराजय स्वीकार नहीं की। अपनी इस सफलता के बाद सत्यजीत राय (Satyajit Ray) ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने एक से एक नायाब फिल्में बनाई और अपना नाम बर्गमैन, जोला, कूप्रीन, फेलीनी, बेर्तोलुच्ची, कुरोसोवा और रेनुआं जैसी विश्व की महान फिल्मी हस्तियों की श्रेणी में लिखवा लिया।
सत्यजीत राय (Satyajit Ray) सिर्फ फिल्मकार ही नहीं थे। रवींद्रनाथ ठाकुर की तरह उनमें भी एक साहित्यकार, चित्रकार, छायाकार, संगीतज्ञ और चिंतक के गुण मौजूद थे। उन्होंने बांग्ला उपन्यासों और कहानियों पर आधारित कई फिल्में बनाई। उनकी पहली फिल्म विभूति भूषण बंद्दोपाध्याय के उपन्यास पाथेर पांचाली पर आधारित थी। हिंदी में बनी उनकी पहली फिल्म शतरंज के खिलाड़ी का कथानक मुंशी प्रेमचंद्र की कहानी से लिया गया है। वैसे तो साहित्य और सिनेमा कि विधा में एक बहुत बड़ा फर्क है और सत्यजीत राय (Satyajit Ray) इस फर्क को बखूबी समझते थे। पर वे ऐसे फिल्मकार थे, जिनकी फिल्मों पर साहित्यिक छाप स्पष्ट नजर आती है।
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हॉलीवुड तथा दुनिया के अन्य भागों में समय-समय पर फिल्म तकनीक और भाषा संबंधी जो नए-नए प्रयोग होते रहे, सत्यजीत राय (Satyajit Ray) ने बड़ी बारीकी से उनका अध्ययन किया लेकिन अपनी फिल्मों की आत्मा उन्होंने इस देश की साहित्यिक और सामाजिक परंपराओं में ही ढूंढी है। सत्यजीत राय (Satyajit Ray) ने बांग्ला की साहित्यिक कृतियों की विष्य-वस्तु का फिल्मी भाषा में जिस कुशलता से इस्तेमाल किया है वह उनकी अद्भूत कलात्मक क्षमता की अपने आप में एक जीती-जागती मिसाल है। राय की सभी फिल्मों में यथार्थ, उनके अनुभव और अनुभूतियों का प्रस्तुतीकरण कलात्मक रहा है। उनकी फिल्मों में एक नवीनता और ताजगी पाई जाती है जो अन्य फिल्मकारों में बहुत कम देखने में आती है।
यहां यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि सत्यजीत राय (Satyajit Ray) केवल बांग्ला अथवा भारत के ही नहीं बल्कि समूचे विश्व के थे, लेकिन उनकी फिल्मों में अपनी मिट्टी की सोंधी गंध पाई जाती है। बंगाल की धरती, उसकी इठलाती नदियां, वहां का सादा ग्रामिण जीवन, रुमानी क्रांतिकारिता, रहस्यमयता और कलात्मक चेतना उनकी फिल्मों में पूरी प्रखरता से उभर कर सामने आई है।
सत्यजित राय का जन्म 2 मई 1921 में कोलकाता में हुआ था। यह दुःखद बात है कि राय के बाल्यकाल के दौरान उनकी पारिवारिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। बचपन में ही पिता चल बसे। मां को विधवा आश्रम में नौकरी कर घर का खर्च चलाना पड़ा। कुछ समय बाद मजबूरन मां उन्हें लेकर ननिहाल चली गईं। यहाँ की स्थिति काफी संपन्न थी। राय को शिक्षा का एक अनुकूल माहौल मिला। इनके मामा का परिवार भी नाटक और फिल्म से जुड़ा हुआ था। परिवार में संगीत की एक लंबी परंपरा थी। इसलिए इन सबका सत्यजित राय के जीवन पर व्यापक असर पड़ा जो आगे चलकर इनकी फिल्मों में और मुखर होकर सामने आई। यही वजह है कि राय कम शब्दों में उपयुक्त अर्थों के साथ किसी भी घटना को प्रस्तुत करने की क्षमता उनकी हर फिल्म में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। सत्यजित राय ने कहीं से भी फिल्म निर्माण की शिक्षा नहीं ली थी बल्कि उन्होंने तत्कालिन अमेरिकन फिल्में देख-देख कर फिल्म निर्माण की बारीकियां सीखी और बाद में अमेरिकन के साथ-साथ दुनिया के तमाम बड़े निर्माता-निर्देशक सत्यजीत की फिल्मों के मुरीद बन गए। उन्होंने ही भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ के कवर को डिजाइन किया था।
भारत सरकार ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के लिए सत्यजित को 32 राष्ट्रीय पुरस्कार दिये। सत्यजीत रे को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया था। 1985 में उन्हें हिंदी फिल्म उद्योग के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में उन्हें भारत रत्न भी मिला और ऑस्कर भी दिया गया। हालांकि काफी बीमार होने की वजह से वे इसे लेने खुद नहीं जा सके थे। इसके करीब एक महीने के भीतर ही 23 अप्रैल 1992 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया।
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