मरकर भी अमर हैं रानी दुर्गावती, अकबर को दो बार चटाई धूल

Rani Durgavati

Rani Durgavati

Remembering Rani Durgavati: हमारे समाज में सदियों से महिलाओं का कार्यक्षेत्र उनका घर माना जाता है। महिलाओं का मुख्य दायित्व संतान उत्पत्ति, लालन-पालन और घर की जिम्मेदारियों को संभालना ही रहा है। पुरुषों के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे बड़ा योगदान इन्हीं महिलाओं का रहा है। जाहिर है, यदि हम महिलाओं को मानव जाति का शिल्पकार कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि हमारे प्रकृति ने महिलाओं को शक्ति और प्रतिभा संपन्न बनाया है। लेकिन घरों की जिम्मेदारी निभाते-निभाते ये महिलाएं मां और पत्नी के रूप में सिमट कर ही रह गई हैं। महिलाओं को मौका ही नहीं मिला कि वो अपने इस दायरे से बाहर निकलें। लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी जरूरत पड़ी तब ये महिलाएं ही हैं जो घरों की चारदिवारियों से बाहर आकर ऐसे महान काम किए जिसे देखकर दुनिया भी चकित रह जाती है। एक ऐसी ही वीरांगना आज से लगभग चार सौ वर्ष पहले भी हुई थीं। जिन्होंने वीरता और युद्ध में राजपूत राजाओं से अधिक साहस और योग्यता दिखलाई।

Rani Durgavati

दरअसल, इस देश की आन, बान और शान की रक्षा का इतिहास अनेक वीर सपूतों के खून से लिखा गया है। बलिदानों की इसी लंबी फेहरिस्त में एक नाम आता है रानी दुर्गावती का (Rani Durgavati)। जिनका जन्म 5 अक्टूबर, 1524 को चंदेल राजा कीर्तिसिंह शालिवाहन के घर हुआ। वो कीर्तिसिंह की एकलौती पुत्री थीं। उनके पिता उन्हें प्यार से दुर्गा बुलाते थे। दुर्गावती जब बहुत छोटी थीं तभी इनकी माता का स्वर्गवास हो गया। जिसके कारण इनके पिता राजा कीर्तिसिंह ने ही इनका लालन-पालन किया। पिता ने दुर्गावती को पुत्र के समान ही पाला था। उन्होंने दुर्गावती को शस्त्र चलाने की शिक्षा बचपन से ही दी थी और तेरह- चौदह वर्ष की आयु में ही दुर्गावती सिंह, तेंदुआ जैसे खतरनाक जानवरों का शिकार करने लग गई थी।

दुर्गावती (Rani Durgavati) जब विवाह योग्य हुईं तब उनके रूप और गुणों की चर्चा चारों तरफ फैल गई थी। ये चर्चा गोंडवाना के राजा दलपतशाह तक भी पहुंची। दलपतशाह ने दुर्गावती के पिता को पत्र लिखकर उनकी पुत्री के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा था। लेकिन अपनी राजपूत पुत्री की शादी एक गोड़ राजा से करना कीर्तिसिंह को गवारा नहीं था। लिहाजा उन्होंने दलपतशाह को युद्ध का निमंत्रण दिया और जीतने पर दुर्गावती की शादी करने की शर्त रखी। दलपतशाह की सेना चंदेल राजा की सेना के मुकाबले बहुत छोटी थी लेकिन दलपतशाह बहुत बहादुर राजा था, उसने कीर्तिसिंह की ये चुनौती स्वीकार की और युद्ध में चंदेल राजा को पराजित कर दिया। इतना सब होने के बावजूद भी दलपतशाह ने पराजित राजा कीर्तिसिंह और उनकी पुत्री दुर्गावती से किसी तरह का दुर्व्यवहार नहीं किया। लिहाजा कीर्तिसिंह को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अपनी पुत्री दुर्गावती की शादी गोंडवाना के राजा दलपतशाह से करा दी।

शादी के एक साल बाद ही दुर्गावती ने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र का नाम वीरनारायण रखा गया। वीरनारायण अभी चार साल का हुआ ही था कि उसके सर से पिता का साया उठ गया। दलपतशाह अपनी रानी और पुत्र को आंसुओ में डूबो कर दुनिया छोड़कर चले गए।

दलपतशाह के स्वर्गवास के बाद दुर्गावती ने बड़े साहस और धैर्य के साथ राज्य की बागडोर संभाली। वे अपने पुत्र वीर नारायण के प्रतिनिधि के रूप में सिंहासन पर बैठकर राज्य करने लगी। दुर्गावती (Rani Durgavati) ने अपने राज्य और जनता के लिए कई उपयोगी काम किए। रानी के शासन से वहां की जनता बहुत खुश और सुखी थी। गोंडवाना एक खुशहाल राज्य के तौर पर चारों ओर चर्चा बटोरने लगा।

Rani Durgavati

उस समय भारत में मुगल सम्राट अकबर के दबदबे से बड़े-बड़े राजा उसके आधीन हो गये थे। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि के प्रसिद्ध रियासतें अकबर की अधीनता ही स्वीकार नहीं कर ली थी, वे उसके सहायक भी बन गये थे। ये वो दौर था जब हिंदू राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के बारे में विचार करना ही त्याग दिया था। वे सीधे शरणागत हो रहे थे। रानी दुर्गावती (Rani Durgavati) की दृढ़ता, शासन करने की शैली तथा प्रजा-रंजन बादशाह अकबर को भी चिढ़ाता था। एक विधवा रानी का सुयोग्य शासन उसे खटक रहा था। अकबर ने संदेश भेजा कि रानी, पिंजरे में कैद हो जाओ, तभी सुरक्षित रहोगी और वह पिंजरा होगा, मुगल बादशाह अकबर का। सोने का ही सही, पर पिंजरा तो पिंजरा होता है। गुलामी तो गुलामी होती है। कितना निकृष्ट संदेश रहा होगा? रानी दुर्गावती ने इस संदेश के उत्तर में अकबर को उसकी औकात बता दी। रानी संस्कृति की पूजक थीं, ‘गीता’ रानी का प्रिय ग्रंथ था। वह पंडितों से नियमित गीता प्रवचन सुनती थीं। रानी जीना भी जानती थीं और मृत्यु को गले लगाना भी। उन्हें पुनर्जन्म पर भी विश्वास था। वो देश के लिए स्वाभिमानी भी थीं और युद्ध के मैदान में रणचंडी भी। ऐसी वीरांगना रानी अकबर की नौकरानी कैसे बन सकती थी? उस समय भी नारी होते हुए भी रानी दुर्गावती ने दिल्ली- सम्राट् की विशाल सेना के सामने खडे़ होने का साहस किया और उसे दो बार पराजित करके पीछे खदेड़ दिया।

अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को अलंकृत करने वाले महान समीक्षक रामचंद्र शुक्ल

अपनी सेना की पराजय को अकबर बर्दास्त नहीं कर सका और उसने अपने सेनापति आसफखां के नेतृत्व में हजारों की संख्या में सैनिकों को रानी को पराजित करने के लिए भेज दिया। अकबर की सेना और रानी दुर्गावती (Rani Durgavati) के बीच तीसरी लड़ाई के दौरान जब उनके पुत्र वीर नारायण वीरगति को प्राप्त हुए तब रानी ने ये समझ लिया कि अब अंत नजदीक आ गया है। पुत्र वीर नारायण की वीरगति के बाद अब रानी को जीवन से तनिक भी मोह नहीं रह गया था। वो अपने बचे हुए सैनिकों को लेकर मुगल सेना पर टूट पडीं। उन्होंने सैकड़ों शत्रुओं को यमलोक पहुंचाया, पर अचानक एक तीर आकर उनकी आंख में लगा। रानी ने उसे अपने हाथ से बाहर खींच लिया। इतने में दूसरा तीर गर्दन में लगा। उससे असह्य पीड़ा होने लगी। उस समय रानी ने अपने सैनिक आधारसिंह से कहा “मैं अब खून निकलने से कमजोर होती जा रही हूं। मैं कभी नहीं चाहती कि शत्रु मुझे जीवित छूएं। इसलिए तुम तलवार से मेरी जीवन लीला समाप्त कर दो।” पर आधारसिंह इस बात को सुनकर कांप उठा और उसने भरे हुए कंठ से कहा- “मैं असमर्थ हूं, मेरा हाथ आप पर नहीं उठ सकता। रानी जोश में आ गईं और अपनी कटार को जोर से अपनी छाती में घुसेड़ दिया। दूसरे ही पल उनकी निर्जीव लाश जमीन पर पड़ी दिखाई दी।   

दुर्गावती (Rani Durgavati) ने जिस प्रकार मातृभूमि की रक्षा के लिए विदेशी आक्रमणकारियों से युद्ध करके वीरगति को प्राप्त हुईं, वैसी मृत्यु शोक नहीं, गौरव की बात मानी जाती है। अपने लाभ के लिए तो सभी प्रयत्न करते और संकट उठाते हैं, पर जो न्याय की खातिर अपनी हानि देखकर भी संघर्ष करते हैं, उनकी गिनती महान पुरुषों में होती है। दुर्गावती अगर चाहतीं तो अकबर की अधीनता स्वीकार करके आजन्म सुखपूर्वक रह सकती थीं, पर ऐसा करने में उन्हें अपना और देश का अपमान लगा और उन्हें इस अपमान के साथ जीना गंवारा नहीं था।

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