पुण्यतिथि विशेष : वीर रस के श्रेष्ठ कवि पद्मभूषण रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की जीवन यात्रा

रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) की आज 45वीं पुण्यतिथि है। राष्ट्रकवि दिनकर जी ने हिंदी साहित्य में न सिर्फ वीर रस के काव्य को एक नयी ऊंचाई दी, बल्कि अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का भी सृजन किया।

Ramdhari Singh Dinkar

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के,
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

ये पंक्तियां हैं महान कवि रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) की जिसे उन्होंने सूत-पुत्र कर्ण के संदर्भ में लिखी थी। मर्म है कि कैसे दुनिया जिसको एक शूद्र के पुत्र के रूप में देखती थी असल में वो अपने करतबों से, अपने कर्मों से एक महान शख्सियत थी और इतिहास उसको आज भी उसी तरह याद करता है।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) का जन्म 8 सितंबर, 1908 को मुंगेर जिले के सिमरिया नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। दिनकर जी का बचपन कोई बहुत ज्यादा सुख सुविधाओं से भरा हुआ नहीं था। नंगे पैर स्कूल जाते थे, 7 कोस उन्हें रोज पैदल चलना पड़ता था और बीच में एक स्टीमर भी लेना पड़ता था नदी पार करने के लिए। अब बात ये है कि वो स्टीमर अपनी लास्ट राइड रोजाना की दोपहर दो बजे करता था। लिहाजा, कई बार अपना स्कूल आधा ही छोड़कर दिनकर को वापस घर लौटना पड़ता था। लेकिन फिर भी अपनी कक्षा में वो हमेशा अव्वल रहते थे। बहुत छोटी उम्र में ही उन्होंने हिंदी, संस्कृत, मैथिली, ऊर्दू, बांग्ला और इंग्लिश पर खासी पकड़ बना ली थी। साथ ही उनका क्रांतिकारी और प्रोग्रेसिव व्यक्तित्व भी मुखर होने लगा था। इस प्रोग्रेसिव प्रवृति की झलक उनकी इस कविता में भी दिखती है। संदर्भ है, कर्ण और युद्धिष्ठिर का युद्ध। जिसमें युद्धिष्ठिर बुरी तरह पराजित हुए, रण छोड़ कर भाग रहे थे-

भागे वे रण को छोड़, कर्ण ने झपट दौड़ कर कहा, ग्रीव,

कौतुक से बोला महाराज, तुम तो निकले कोमल अतीव,

हां भीरू नहीं कोमल कहकर ही जान बचाए देता हूं,

आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताए देता हूं

हैं विप्र आप, सेविए धर्म तरू तले कहीं निर्जन वन में,

काम क्या साधुओं का कहिए इस महाघोर घातक रण में,

मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिए,

जाइए, नहीं फिर कभी गरूण की झपटों से खेला करिए।

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सोलह साल की उम्र में ही ‘छात्र सहोदर’ नाम की उनकी पहली कविता छपी थी। लेकिन एक निर्मल हृदय कवि कैसे क्रांतिकारी में परिवर्तित हुआ उसके पीछे भी एक किस्सा है। सरदार वल्लभ भाई पटेल बचपन से ही उनके नायक थे और जब उन्होंने गुजरात में कामयाबी के साथ असहयोग आंदोलन चलाया तो उनको समर्पित करते हुए, रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) ने दस कविताएं लिख डालीं। एक से एक वीर रस से भरी हुईं। ये कविताएं ‘विजय संदेश’ के शीर्षक से छपीं और इसी के साथ पदार्पण हुआ भारतीय साहित्यिक मंच पर एक नए राष्ट्रभक्त कवि का। लेकिन उसके फौरन बाद ही एक ऐसी घटना घटी जिसने दिनकर को झकझोर कर रख दिया। अंग्रेजों के खिलाफ उनके मन में जैसे ज्वाला सी भड़कने लगी। साइमन कमीशन उसी दौर में भारत आया था और उसका विरोध कर रहे पंजाब में लाला लाजपत राय पर जिस बर्बरता से पुलिस ने लाठियां बरसाईं और उनकी शहादत हुई, उसके बाद दिनकर के अंदर छुपे क्रांतिकारी कवि ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

सदियों की बुझी ठंडी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,

दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,

फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,

धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है,

दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

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कैसे दिनकर के अंदर का क्रांतिकारी एकदम से मुखर होता चला गया। लाला लाजपत राय की शहादत और उस पर दिनकर साहब का काव्य। अब, रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) अंग्रेजों के निशाने पर आ चुके थे। लिहाजा, उन्होंने एक छद्म नाम ‘अमिताभ’ से अपनी कविताएं छपवानी शुरू कर दीं। महान शहीद जतिन दास की शहादत पर भी उन्होंने एक कविता लिखी और उसी वक्त ‘वीर-बाला’ और ‘मेघनाद-वध’ उनकी दो बहुत चर्चित कविताएं और छपीं। उन्हीं दिनों जाने-माने इतिहासकार डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल भी दिनकर के जीवन में एक बड़ा प्रेरणा श्रोत बनकर आए। इतिहास का ज्ञान, उसका बोध और उसका कविताओं में सही इस्तेमाल, ये सब दिनकर के जीवन में डॉ. जायसवाल की ही देन थी। इसीलिए दिनकर ने जायसवाल साहब को अपने गुरु का दर्जा दिया। उनकी मृत्यु पर फूट-फूट कर रोए और लिखा कि आज मुझे प्यार करने वाला न रहा, मुझे प्रेरणा देने वाला सूर्य, चंद्रमा, वरूण, कुबेर, इंद्र, बृहस्पति, सचि और ब्राह्मणि नहीं रहा। वो मेरे पहले-पहले प्रेरणा श्रोत थे और आज मैं अंधकार में चला गया हूं।

जब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पड़ी सहारे की जरुरत

एक मर्तबा देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कैसे दिनकर जी के सहारे की जरुरत पड़ गई, वो किस्सा भी दिलचस्प है। दरअसल, लाल किले की प्राचीर पर एक बड़े कवि सम्मेलन का आयोजन हुआ था। कवि सम्मेलन की समाप्ति पर साथ-साथ सीढ़ियों से उतर रहे थे प्रधानमंत्री नेहरू और राष्ट्रकवि दिनकर। एकाएक नेहरूजी के पांव लड़खड़ाए और वो जैसे गिरने को हुए। लेकिन उसी समय आगे बढ़कर दिनकर साहब ने उन्हें सहारा दे दिया। नेहरूजी हंसकर बोले, अरे, दिनकर आज तो तुमने मुझे गिरने से बचा लिया। दिनकर साहब का जवाब था, भारतीय राजनीति जब-जब लड़खड़ाएगी, देश का साहित्य उसे ऐसे ही सहारा देगा। इस जवाब ने नेहरूजी को लाजवाब कर दिया।

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कैसे मिला राष्ट्रकवि का दर्जा?

अब राष्ट्रकवि का दर्जा कोई सरकारी सम्मान तो था नहीं। दिल्ली में कैबिनेट कमिटी में बैठ कर ये निर्धारित तो किया नहीं कि अब ये राष्ट्रृकवि कहलाएंगे। ये जनता द्वारा दिनकर जी को दी गई एक उपाधि थी। जो किसी भी सरकारी सम्मान से कहीं ज्यादा बड़ी होती है। बात ये थी कि उनके समकालीन कई महान कवि थे। महादेवी वर्मा, निराला, हरिवंश राय बच्चन सब एक से बढ़कर एक असाधारण प्रतिभा के धनी। लेकिन किसी की कविता में ज्यादा वात्सल्य दिखता था, तो किसी की में करूणा, तो किसी की प्रेम का भाव। लेकिन रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari Singh Dinkar) की कलम से टपकता था एक अद्भुत वीर रस। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कलम से जब वीर रस की अभिव्यक्ति होती थी तो पूरे देश का जैसे खून खौलने लगता था। एक अद्भुत रोमांच और एहसास देशवासियों के मन में पैदा होता था और इसीलिए ही राष्ट्रवासियों ने उन्हें उपाधि दी ‘राष्ट्रकवि’ की।

दिनकर बड़े या हरिवंश राय बच्चन?

यह ठीक वही दौर था जब भारतीय साहित्य, कविता और पद्य की दुनिया में एक से एक हस्ताक्षर नाम कमा रहे थे, मीडिया ने एक और बहस भी छेड़ना चाहा। एक और विवाद खड़ा करने की कोशिश की कि कौन है समकालीन सर्वश्रेष्ठ कवि, डॉ. हरिवंश राय बच्चन या रामधारी सिंह दिनकर? मीडिया ने खैर उस बहस को किस तरह से गरमाया और किस तरह से सेटल किया, ये तो एक अलग किस्सा है। लेकिन स्वयं डॉ. हरिवंश राय बच्चन ने अपनी जीवनी ‘क्या भूलूं, क्या याद करूं’ में लिखा है कि वो खुद बहुत बड़े प्रसंशक थे रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) के और जब पहली बार कलकत्ता में एक कवि सम्मेलन में उनकी दिनकर जी से मुलाकात हुई तो उन्होंने दिनकर साहब को बताया कि वो कैसे उनकी कविताओं को बहुत श्रद्धा से पढ़ते हैं। जवाब में जब दिनकर साहब मे कहा कि वो भी उनकी कविताओं को उतने ही शौक से और उतने ही आदर भाव से पढ़ते हैं तो हरिवंश राय बच्चन का मन फूला न समाया और उसी दिन से उन्होंने हमेशा दिनकर को अपने बड़े भाई का स्थान दिया।

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दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) और बच्चन दोनों ही इतनी बड़ी शख्सियतें थी, इतने महान साहित्यकार थे कि उनके बीच में कौन बड़ा, शायद उन दोनों के लिए कभी मैटर नहीं किया। दोनों ने एक दूसरे को ताऊम्र पूरा सम्मान और आदर दिया। दोनों के बीच पारिवारिक संबंध भी बहुत मधुर थे। जब हरिवंश राय बच्चन की पहली पत्नी श्यामा को टीबी हो गई थी और वो अस्पताल में थीं, तो दिनकर उन्हें देखने गए थे। वे उनके लिए फूल लेकर गए थे। वो फूल उन्होंने श्यामा जी को दिया, तो बच्चन साहब बोले, जब-जब इन्हें कड़वी दवाई पीनी पड़ती है, इन्हें आपकी पंक्ति याद आती है- हे नीलकंठ संतोष करो, था लिखा गरल का पान तुम्हें।

इमरजेंसी का ‘काला अध्याय’ और दिनकर

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की बहुत ही सूक्ष्म और पैनी नजर भारतीय समाज और राजतंत्र पर थी। यही वजह थी कि इसका उनके लेखन पर भी बहुत जबरदस्त असर था। जयप्रकाश जी का जो ‘संपूर्ण क्रांति’ का पूरा आंदोलन था उसके आधार में कहीं न कहीं दिनकर जी का पूरा काव्य व्यक्तित्व रहा या उनकी कविताएं उस समय नारे की तरह चल रही थीं। सभी लोग दिनकर जी की कविता पढ़ते थे, खासकर ‘जनतंत्र का जन्म’। इस पूरी कविता को लोग दोहराते थे और ज्यादातर नारों के तौर पर यह कविता, उसकी पंक्तियां चल रही थीं-

सदियों की बुझी ठंडी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,

दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

दिनकर जी (Ramdhari Singh Dinkar) का जयप्रकाश नारायण जी से बहुत पुराना संबंध था। दिनकर जी की एक बहुत प्रसिद्ध कविता है जयप्रकाश जी पर जो सन् 1942 में उन्होंने पटना के गांधी मैदान में जयप्रकाश जी के उपस्थिति में पढ़ी थी-

वह सुनो, भविष्य पुकार रहा,

वह दलित देश का त्राता है,

स्वप्नों का दृष्टा “जयप्रकाश”

भारत का भाग्य-विधाता है।

जब मंच पर रो पड़े जयप्रकाश नारायण

राष्ट्रकवि दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) से लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संबंध बेहद अंतरंग और घनिष्ठ थे। बात है साल 1977-78 की। दिनकर जी की स्मृति में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। जयप्रकाश जी को बतौर मुख्य वक्ता कार्यक्रम में बुलाया गया। जब जयप्रकाश जी से बोलने के लिए कहा गया तो तीन बार कोशिश करने के बावजूद उनके मुंह से स्वर न फूट पाए। हर बार वे बोलने को आते और फफक-फफक कर रोने लगते। जब काफी देर बाद वो संयत हुए तो बताया कि कैसे एक बार तिरूपति में दिनकर जी ने ईश्वर से यह कामना की थी कि हे भगवान मेरी उम्र जयप्रकाश जी को लग जाए।

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राष्ट्रकवि दिनकर जी (Ramdhari Singh Dinkar) का व्यक्तिव्य और काव्य इतना वृहद है कि उन पर कई महाकाव्य लिखे जाएं तो भी वह उसमें ना समा सकें। फिर भी उनकी पुण्यतिथि पर उनको नमन करते हुए उन्हीं की कविता से श्रद्धांजलि। संदर्भ है कि कैसे भगवान कृष्ण दुर्योधन के पास गए थे पांडवों की तरफ से शांति का प्रस्ताव लेकर-

वर्षों तक वन में घूम-घूम,

बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,

सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,

पांडव आये कुछ और निखर।

सौभाग्य न सब दिन सोता है,

देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,

सबको सुमार्ग पर लाने को,

दुर्योधन को समझाने को,

भीषण विध्वंस बचाने को,

भगवान हस्तिनापुर आये,

पांडव का संदेशा लाये।

दो न्याय अगर तो आधा दो,

पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

रक्खो अपनी धरती तमाम।

हम वहीं खुशी से खायेंगे,

परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,

आशीष समाज की ले न सका,

उलटे, हरि को बाँधने चला,

जो था असाध्य, साधने चला।

जब नाश मनुज पर छाता है,

पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,

अपना स्वरूप-विस्तार किया,

डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

भगवान कुपित होकर बोले-

जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,

यह देख, पवन मुझमें लय है,

मुझमें विलीन झंकार सकल,

मुझमें लय है संसार सकल।

अमरत्व फूलता है मुझमें,

संहार झूलता है मुझमें।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

भूमंडल वक्षस्थल विशाल,

भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,

चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,

शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,

शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,

शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,

हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

हित-वचन नहीं तूने माना,

मैत्री का मूल्य न पहचाना,

तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,

अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

याचना नहीं, अब रण होगा,

जीवन-जय या कि मरण होगा।

टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,

बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,

फण शेषनाग का डोलेगा,

विकराल काल मुँह खोलेगा।

दुर्योधन! रण ऐसा होगा।

फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,

विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,

वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,

सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।

आखिर तू भूशायी होगा,

हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,

चुप थे या थे बेहोश पड़े।

केवल दो नर ना अघाते थे,

धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कर जोड़ खड़े प्रमुदित,

निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

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