महारानी विक्टोरिया का दिल अजीज था ये भारतीय नौकर, मजबूरी में शाही परिवार ने क्वीन के अंतिम संस्कार में उसे किया शामिल

अगर आपको ये पता चले कि उनका सबसे करीब का व्यक्ति जिसे वो अपने बच्चों से भी ज्यादा पसंद करती थीं वो भारतीय था तो आप चौंक जाएंगे। इतनी ज्यादा करीबी थी दोनों के बीच कि जब क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) की मौत हुई तो उनके बेटे ने अंतिम संस्कार के बाद जो आदेश दिया वो ये था कि क्वीन ने जितने लैटर्स उसे लिखे हैं, वो सब अभी जला दे और परिवार समेत तुरंत भारत वापस चला जाए।

Queen Victoria

Queen Victoria with Abdul

महारानी विक्टोरिया 1837 ई. में ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैण्ड की महारानी के रूप में सिंहासन पर आरूढ़ हुई थीं। 1877 ई. में उन्हें भारत की सम्राज्ञी घोषित किया गया था। अपने उदार विचारों के कारण ही वह भारतीय जनमानस में प्रसिद्ध हुई थीं। विक्टोरिया का जन्म सन 24 मई 1819 ई. में हुआ था। जब वे मात्र आठ महीने की ही थीं, तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। विक्टोरिया के मामा ने उनका पालन-पोषण किया और शिक्षा-दीक्षा का कार्य बड़ी निपुणता से संभाला। वे स्वयं भी एक बड़े योग्य और अनुभवी व्यक्ति थे। उनकी संगत में ही विक्टोरिया ने राजकाज का कार्य सम्भालना शुरू कर दिया था। मात्र अठारह वर्ष की उम्र में ही विक्टोरिया राजगद्दी पर आसीन हो गई थीं। महारानी के जन्मदिन के अवसर पर उनसे जुड़ा एक किस्सा पूरी दुनिया में बहुत मशहूर है।

दरअसल ये बात महारानी के निधन का है। 1897 में यानी अपनी मौत से 4 साल पहले ही ब्रिटेन साम्राज्य की महारानी क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) ने अपने अंतिम संस्कार के लिए दिशा निर्देश लिख दिए थे कि कैसे करना है और क्या क्या करना है। 22 जनवरी 1901 को उनकी मौत के बाद 1 फरवरी को अंतिम संस्कार हुआ था। 64 साल बाद शाही खानदान में किसी का अंतिम संस्कार हो रहा था, सो इससे पहले वहां कोई ऐसा मौजूद नहीं था, जिसने किसी पुराने रानी या राजा का अंतिम संस्कार देखा हो तो क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) के लिखित निर्देशों का ही पालन हो रहा था। क्वीन की ख्वाहिश थी कि उनका अंतिम संस्कार एक फौजी की बेटी की तरह हो, तो उनके कॉफिन बॉक्स के साथ हर जगह एक तोप ले जाई गई थी। उन्हें काला रंग पसंद नहीं था, सो सफेद कपड़े पहनाए गए। सबसे खास था उनके सिरहाने उनके पुराने सहयोगी जॉन ब्राउन के बालों का एक गुच्छा और फोटो। ऐसे में एक व्यक्ति को उनके कॉफिन के पास लाया गया और खास तौर पर क्वीन का चेहरा दिखाने के लिए कॉफिन खोला गया, इतना ही नहीं उसको क्वीन के परिवार और करीबी लोगों के साथ ही पूरे वक्त रहने की इजाजत दी गई। लेकिन वो व्यक्ति उस वक्त बिलकुल सहज नहीं था। तमाम अंग्रेजों के बीच ये अकेला भारतीय था।

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इतिहास अजब गजब कहानियों से भरा पड़ा है, जिनमें से तमाम अनसुनी रह गईं। ऐसी ही एक दिलचस्प कहानी है दुनियां भर पर राज करने वाले ब्रिटेन की महारानी क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) की। अगर आपको ये पता चले कि उनका सबसे करीब का व्यक्ति जिसे वो अपने बच्चों से भी ज्यादा पसंद करती थीं वो भारतीय था तो आप चौंक जाएंगे। इतनी ज्यादा करीबी थी दोनों के बीच कि जब क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) की मौत हुई तो उनके बेटे ने अंतिम संस्कार के बाद जो आदेश दिया वो ये था कि क्वीन ने जितने लैटर्स उसे लिखे हैं, वो सब अभी जला दे और परिवार समेत तुरंत भारत वापस चला जाए। 2017 में हॉलीवुड में क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) और इस भारतीय के रिश्तों पर एक मूवी भी बनी, ‘विक्टोरिया एंड अब्दुल’।

उसका नाम था अब्दुल करीम, और क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) से उसकी करीबी वाकई इस कदर थी कि एक बार जब वो थोड़े वक्त के लिए इंडिया वापस गया तो क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) उसे रोज एक लैटर लिखा करती थी। अब्दुल करीम आगरा का रहने वाला था, और क्वीन की तिहाई से भी कम उम्र का था। अब्दुल का जन्म झांसी के पास ललितपुर में हुआ था, पिता ब्रिटिश सेवा में हॉस्पिटल असिस्टेंट थे,जिन्हें बाद में आगरा जेल ट्रांसफर कर दिया गया, बाद में अब्दुल भी उसी जेल में क्लर्क बन गया। लंदन में भारतीय कालीनों और हैडलूम की एक एक्जीबीशन होनी थी, क्वीन को उसमें आना था। जेल अधीक्षक जॉन टाइलर ने जेल के कैदियों से ढेर सारे कालीन बनवाए, 34 कैदियों के साथ कालीनों को लंदन भिजवाया, क्वीन के लिए दो गोल्ड ब्रेसलेट भी तोहफे में भिजवाए। इसकी सारी जिम्मेदारी अब्दुल के कंधों पर थी। अंग्रेज अधिकारी अब्दुल से काफी खुश थे। अब्दुल भी अंग्रेजी तौरतरीकों और भाषा में पारंगत हो चला था।

1887 में क्वीन अपने शासन की गोल्डन जुबली मनाने जा रही थीं, भारत से भी तमाम रजवाडों से राजाओं को बुलाया गया था। लेकिन महारानी भारतीयों और भारतीय तौरतरीकों के बारे में ज्यादा जानती नहीं थी। वो और जानना चाहती थी। उसने जॉन टेलर से ही दो भारतीय सहायकों को भेजने को कहा। अब्दुल करीम के साथ साथ मोहम्मद बख्श की भी लॉटरी लग गई। भेजने से पहले दोनों को अच्छे से शाही तौरतरीकों और अंग्रेजी तहजीब की ट्रेनिंग दी गई। महारानी से उनकी पहली मुलाकात 23 जून 1887 को हुई, महारानी ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘’The other, much younger, is much lighter [than Buksh], tall, and with a fine serious countenance। His father is a native doctor at Agra। They both kissed my feet’’।

क्वीन की डायरी से पता चलता है कि करीम उन्हें उर्दू और हिंदुस्तानी सिखाने लगा, एक दिन उसने बहुत अच्छी करी भी बनाकर खिलाई। जब बड़ोदा से महारानी चिमना बाई मिलने आईं तो क्वीन ने कुछ उर्दू के शब्दों का भी पहली बार इस्तेमाल किया। महारानी को धीरे धीरे करीम पसंद आने लगा, करीम के लिए अलग से एक इंगलिश ट्यूटर लगाया गया। उसे वेटर या सहायक जैसे ओहदे से बढ़ाकर क्लर्क या मुंशी की पोस्ट दे दी गई, क्वीन उसे डीयरेस्ट मुंशी कहकर बुलाती थी। उसे सारे इंडियन कर्मचारियों का इंचार्ज बना दिया गया। क्वीन ने अपने बेटे की बहू लुइस को एक लैटर में अब्दुल के बारे में लिखा था, ‘’ ‘I am so very fond of him। He is so good and gentle and understanding… and is a real comfort to me।’’

क्वीन उससे हर तरह की राय लेने लगी, पारिवारिक, राजनीतिक, महल के मामले, भारतीय मामले और यहां तक कि दार्शनिक भी। भारत के वायसराय के विरोध के वाबजूद करीम ने अपने पिता की पेंशन बंधवा ली और आगरा के जेलर जॉन टाइलर का प्रमोशन करवा दिया। इतना ही नहीं जब प्रिंस एडवर्ड के एक कार्यक्रम में करीम को बाकी भारतीय नौकरों के साथ बैठाया गया तो वो नाराज होकर अपने कमरे में चला गया, बाद में क्वीन ने उसे बुलाकर परिवार के साथ बैठाया। वो उसे फैमिली फ्रेंड की तरह परिचय करवाने लगी थीं। क्वीन ने अलग अलग मौकों पर लंदन के तीन जाने माने पेंटर्स को आदेश देकर मुंशी अब्दुल करीम की तीन बड़ी आदमकद पेंटिंग्स भी बनवाईं, इतना लगाव देखकर क्वीन के बच्चे भी नाराज रहने लगे थे। करीम के बाकी परिवार को भी लंदन बुलाकर एक घऱ उसे दे दिया गया था। यहां तक कि उसका भतीजा, उसकी सास सब आकर वहां रहने लगे, कई और रिश्तेदार भी।

एक बार करीम के एक रिश्तेदार ने महारानी के कान के बुंदों को चुराकर एक ज्वैलर को बेचने की कोशिश की, करीम ने क्वीन के समझा दिया कि भारत मे ये परम्परा है कि अगर कोई चीज आपको कहीं पड़ी मिले तो वो आपकी है, बाकी स्टाफ मानता था कि उसने चोरी की है, लेकिन क्वीन अपने मुंशी की बात से सहमत थी। इतना ही नहीं करीम ने भारत के स्थानीय निकाय चुनावों में मुस्लिम ज्यादा जीत सकें इसलिए कुछ सुझाव क्वीन के जरिए भारत के वायसराय लैंसडाउन को भी भिजवाए थे, जिसे उसने विवाद होने के डर से लागू नहीं किया। वायसराय को वो क्वीन की तरफ से कई लैटर्स भेजने लगा, उनमें से कई लैटर मुस्लिमों को ज्यादा तबज्जो और सुविधा दिए जाने की मांग वाले थे। वायसराय परेशान रहने लगा। इधर 1890 में जब करीम की गर्दन गर्म पानी गिरने से जल गई तो क्वीन के पर्सनल डॉक्टर ने उसका इलाज किया, और दिन में दो बार क्वीन खुद उसे देखने आती थी।

क्वीन के बार बार आग्रह करने पर वायसराय ने ना केवल करीम के परिवार के लिए आगरा में एक जमीन का टुकड़ा गिफ्ट किया बल्कि जब करीम उसी साल आगरा आया तो उससे मुलाकात भी की। इतना ही नहीं करीम के पिता के रिटायरमेंट के बाद उसे ‘खान बहादुर’ की उपाधि के साथ सम्मानित भी किया गया। क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) अक्सर अपने लैटर्स में करीम के लिए अंत में “your affectionate mother, VRI” जैसे साइन जरूर इस्तेमाल करती थी। कई देशों के राजघराने तो करीम को कोई भारतीय प्रिंस समझते थे। करीम के तेवर वक्त के साथ इतने ज्यादा बदल चुके थे कि क्वीन की नातिन की शादी को उसने इसलिए अटैंड करने से मना कर दिया क्योंकि क्वीन के बेटे प्रिंस अल्फ्रेड ने उसके लिए सीट नौकरों के साथ ही लगवाई थी। हालांकि इसे उसके स्वाभिमान के तौर पर भी जाना जा सकता है।

लेकिन इस तरह की कुछ घटनाओं के चलते क्वीन की फैमिली से लेकर तीन वायसरायों समेत तमाम ब्रिटिश अधिकारियों और ढेरों यूरोपीय राजघरानों में अब्दुल करीम की चर्चा होने लगी थी। तमाम लोग उससे नजदीकियां बढाने की कोशिश करने लगे, तो कुछ उसके खिलाफ साजिश करने लगे। लोग ये तक कहने लगे कि उसे क्वीन के कुछ ऐसे राज पता चल गए हैं, जो अगर पब्लिक में आए तो काफी जगहंसाई होगी, इसलिए क्वीन उसकी हर बात मान लेती है। इधर आगरा में जहां उसे जमीन मिली थी, उसके बगल का भी टुकड़ा उसने खरीद लिया तो एक अंग्रेजी अधिकारी ने उसकी शिकायत की, जिससे क्वीन गुस्सा हो गईं। एक बार लॉर्ड एल्गिन के वायसराय बनने पर एक अधिकारी आगरा गया तो उसने क्वीन के पूछने पर बताया कि करीम का पिता सर्जन जनरल जैसी बड़ी पोस्ट पर नहीं है, जैसा क्वीन ने उसे बताया था, तो गुस्से में उसे क्वीन ने एक साल तक डिनर पर इनवाइट ही नहीं किया। जब भी अब्दुल भारत जाता था, रानी के आदेश पर उसे शाही ट्रीटमेंट मिलता था, तकरीबन रोज क्वीन उसे एक लैटर लिखती थी। ब्रिटेन और यूरोपीय अखबारों में रानी और अब्दुल करीम को लेकर तमाम तरह की कहानियां छपने लगीं। लोग क्वीन के सरकारी पत्रों को अब्दुल के पढ़ने पर रोक लगाने की मांग करने लगे। यहां तक कि अब्दुल के जब कोई बच्चा नहीं हो पाया तो रानी ने उसका और उसकी बीवी का इलाज भी करवाया, खबरें फिर से कई अखबारों में छपीं।

इधर अब्दुल करीम जानता था कि क्वीन के बाद उसे कोई नहीं पूछेगा, सो उसने क्वीन से कहकर अपना ओहदा बढ़वा लिया। ना बढ़ाने पर उसने क्वीन को इंडिया लौट जाने तक की धमकी दी। उसे नया ओहदा मिला ‘कम्पेनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर’। कई अधिकारियों को काफी नागवार गुजरा। अब्दुल ने क्वीन से एक भारतीय टाइटल की मांग की, वो था ‘नवाब’। इससे वो भारत के बाकी राजाओं के बराबर हो जाता। इसके अलावा उसे ऑर्डर ऑफ इंडियन एम्पायर के नाइट कमांडर की भी उपाधि चाहिए थी, इससे उसका नाम हो जाता ‘सर अब्दुल करीम’। वायसराय एल्गिन को ये पसंद नहीं आया, वो उसे इस लायक नहीं समझता था, उसने क्वीन को सुझाव दिया कि करीम को मेम्बर ऑफ रॉयल विक्टोरियन ऑर्डर बना दिया जाए। ब्रिटेन के पीएम ने भी मना कर दिया।

तब क्वीन ने अपने 80वें जन्मदिन पर करीम के लिए मेम्बर और नाइट के बीच की उपाधि का ऐलान कर दिया, ‘कमांडर ऑफ द ऑर्डर’ (सीवीओ)। नवंबर 1899 में एक साल के लिए अब्दुल करीम वापस भारत लौटा, तब तक एल्गिन की मौत के बाद कर्जन को वायसराय बना दिया गया। अब्दुल पर अब अंग्रेज अधिकारी काफी नजर रख रहे थे, कहीं ये अंग्रेजी राज की दुश्मनी ताकतों के साथ तो नहीं। जब वो वापस लौटा तो क्वीन की तबियत काफी खराब हो चली थी। अगले तीन महीने के अंदर क्वीन दुनियां से रुखसत हो गईं और शुरू हो गया करीम का वक्त।

प्रिंस एडवर्ड ने करीम और उसके परिवार को फौरन शाही सेवा से हटाने का आदेश देकर भारत भेजने के इंतजाम करवाए। जिसने भी खत क्वीन ने करीम को लिखे थे, उन्हें फौरन जलाने का आदेश दिया। इतना जरूर है कि क्वीन के अंतिम संस्कार के वक्त पूरे समय अब्दुल करीम को क्वीन की बॉडी के साथ परिवार के सदस्य की तरह ही रहने की इजाजत दी गई।

हालांकि करीम को शायद ये पता था कि क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) ने अपने अंतिम संस्कार के लिए जो निर्देश दिए हं, वो क्या क्या थे। माना ये जाता था कि अब्दुल से सलाह लेकर ही रानी ने वो तैयार किया था, ऐसे में अब्दुल के लिए एक लाइन भी उसमें ना होना अब्दुल के लिए चौंकाने वाला था। अब्दुल खामोश ही रहा लेकिन उसे अंदाज हो गया था कि शाही परिवार के किसी व्यक्ति ने रानी की अंतिम ख्वाहिश की बातों में उससे जुड़ी बातं हटा दी हैं, या सबको नहीं बताईं। अब्दुल से पहले जो सहयोगी क्वीन के करीब था वो था जॉन ब्राउन, क्वीन के कॉफिन में उसका फोटो रखा गया था, हालांकि उसकी मौत अब्दुल के आने से पहले ही 1883 में हो चुकी थी। इसके बाद करीम परिवार के साथ आगरा लौट आया और करीम लॉज में रहने लगा, लेकिन अंग्रेजी अधिकारी बराबर उस पर नजर बनाए रहे। यहां तक कि 1905 में जब प्रिंस ऑफ वेल्स ने आगरा में उससे मुलाकात की तो वहीं से किंग एडवर्ड को लिखा कि ‘’मुंशी मिला, वो मिलकर काफी खुश था, काफी विनम्र था। मुझे बताया गया है कि वो बिना किसी को परेशानी दिए अपने में मस्त रहता है’’। यानी अब तक करीम को लेकर जितने भी अंग्रेज अधिकारियों या प्रेस ने जितने अंदेशे जताए थे, वो गलत थे। करीम भी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाया और 1909 में उसकी भी मौत हो गई। कोई औलाद नहीं थी, बाकी परिवार भी पाकिस्तान रहने चला गया।

2017 में दो बार के ऑस्कर अवॉर्ड विजेता स्टीफन फ्रेयर्स ने इन दोनों के रिश्तों को लेकर एक बड़ी मूवी बनाई जा रहे हैं, ‘विक्टोरिया (Queen Victoria) एंड अब्दुल’। स्टीफन शशि कपूर को भी पहले दो फिल्मों में रोल दे चुके हैं। क्वीन विक्टोरिया (Queen Victoria) के रोल के लिए उन्होंने लिया था जूडी डेंच को, जेम्स बॉन्ड की फिल्मों में आप सबने उन्हें सीक्रेट सर्विस की चीफ और बॉन्ड की बॉस के तौर पर देखा होगा। जबकि अब्दुल करीम के रोल के लखनऊ के अली फैजल को लिया था, आपने उन्हें फुकरे, फुकरे रिर्टन्स, थ्री ईडियट और हैप्पी भाग जाएगी में देखा था, और हॉलीवुड की फास्ट एंड फ्यूरियस सेवन में भी। अमेरिकी टीवी सीरीज ‘बॉलीवुड हीरोज’ में भी काम किया था। शरबनी बसु की किताब पर आधारित इस मूवी को लेकर ब्रिटेन और यूरोप में काफी चर्चा थी, हालांकि भारत में इस फिल्म का ढंग से प्रमोशन नहीं हुआ तो कब आई कब गई पता नहीं चला।

Source: Book- ‘Itihas ke 50 Viral Sach’ by  Shri Vishnu Sharma

 

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