गांधीजी को राष्ट्रपिता कहने वाले पहले व्यक्ति थे नेताजी, ‘गांधी ब्रिगेड’ नाम से बनाई फौज

Subhas Chandra Bose

हम अपने खून से अपनी स्वतंत्रता का मूल्य चुकाएंगे और ऐसा करके हम राष्ट्रीय एकता की नींव रखेंगे। अपनी आजादी को बनाए रखने में हम तभी समर्थ होंगे, जबकि इसे अपने बलिदान और खून से प्राप्त करें। सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose)

Subhas Chandra Bose

सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) एक विशिष्ट रादनीतिक नेता थे। वह अत्यंत गंभीर व उग्र तथा विद्रोही विचारधारा के सच्चे देशभक्त थे। ब्रिटिश शासन के प्रति तीक्ष्ण शत्रुता उनके व्यक्तित्व का सार और उनकी आत्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति थी। भारत की आजादी के आदर्श में उनकी गहरी निष्ठा थी। वे प्रबल कर्मयोगी थे। उनकी शक्ति की अभिव्यक्ति महान राजनीतिक कार्य-कलाप में हुई। वह देश की स्वतंत्रता के लिए संग्राम करने वाले जुझारू योद्धा थे। सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) की महत्ता व गौरवपूर्ण गरिमा भारतीय इतिहास में चिर-अंकित रहेगी। बोस ने शुद्ध राष्ट्रवाद का संदेश दिया था और उसके लिए संघर्ष किया था।

सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक में हुआ था। इनके पिता का नाम जानकीनाथ बसु था और मां का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बसु अधिवक्ता थे और वह सन 1885 में कटक में स्थानीय रूप से बस गए थे­। कटक में ही वह वकालत करते थे। वैसे कोदालिया गांव उनका पैतृक ठिकाना था। कटक में जानकीनाथ बसु की वकालत काफी अच्छी जम गई थी और सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) के जन्म तक जानकीनाथ बसु ख्यातिप्राप्त श्रेष्ठ वकील हो गए थे।

पाँच साल की आयु में सुभाष को बैप्टिस्ट मिशन स्कूल में दाखिल कराया गया। स्कूल में पुरुष अध्यापकों की तुलना में महिला अध्यापकों की संख्या अधिक थी। स्कूल का पाठ्यक्रम कुछ इस तरह बनाया गया था कि बच्चे भारतीय संस्कृति और विचारों से अलग-थलग होते जाएं और अंग्रेजी संस्कति व जीवन शैली में ढलते जाएं। सुभाष शुरू से ही बहुत अध्ययनप्रिय बालक थे। अध्ययन में उनकी विशेष रूचि के कारण स्कूल की अनेक अध्यापिकाएं उन्हें बहुत प्यार करने लगी थीं। उस स्कूल में सात वर्ष तक पढ़ते-पढ़ते सुभाष की आदतें इतनी बदल गईं कि उन्हें देखकर ऐसा लगता ही नहीं था कि वे भारतीय बालक हैं।

बारह वर्ष की अवस्था में सुभाष को रॉवेंशॉ कॉलिजिएट स्कूल में दाखिल कराया गया। यह स्कूल भारतीय संस्कृति, भाषा एवं शिक्षा पद्धति को विशेष महत्व देता था। स्कूल के प्रधानाचार्य श्री बेनी प्रसाद माधव राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत धार्मिक व्यक्ति थे। वे अंग्रेजी शासन के विरोधी थे और भारत से अंग्रेजों को उखाड़कर स्वाधीन भारत का स्वप्न देखा करते थे। इसके लिए वे स्कूल में विद्यार्थियों के लिए ऐसा वातावरण तैयार करने में लगे रहते थे कि बड़े होकर वे देश को स्वाधीन कराने के लिए अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाएं। बच्चों के बीच बैठकर वे उन्हें अपनी संस्कृति और देश से प्यार करना सिखाते थे।

धीरे-धीरे बालक सुभाष के मन में भी अंग्रेजों और अंग्रेजियत के प्रति घृणा उत्पन्न होने लगी। बेनी प्रसादजी की संगति, धार्मिक विचारधारा व देशप्रेम का उनपर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। सुभाष अपनी संस्कृति के बारे में अधिक-से-अधिक जानने के इच्छुक हो उठे। माधवजी से वे ढेरों प्रश्न करते और वे भी सुभाष की सभी जिज्ञासाओं को शांतिपूर्वक सुनकर उसका समाधान कर देते। सुभाष अपने पूर्वजों व ऋषि-मुनियों की सादगीपूर्ण जीवन-शैली के बारे में जानकर इतने प्रभावित हुए कि स्वंय भी उन्हीं आदर्शों का पालन करने का प्रयास करने लगे।

सुभाष के मन में बचपन से ही अपने समाज व उसके लोगों के लिए अपार करुणा व प्रेम भरा हुआ था। उनके विद्यार्थीकाल की एक घटना है। सुभाष जब भोजन के लिए बैठते तो अपने भोजन से दो रोटियां निकालकर अलग रख लेते। मां प्रभावती जब इस संबंध में पूछतीं तो वे कोई बहाना बनाकर टाल जाते।

एक दिन सुभाष के कमरे की सफाई करते समय प्रबावती की नजर अलमारी की ओर गई तो वे हैरान रह गईं। चीटियों की एक लंबी कतार अलमारी के अंदर तक चली जा रही थी। खोलकर देखने पर अलमारी के एक कोने में दो रोटियां रखी मिलीं। मां ने सुभाष से इस संबंध में पूछा तो उन्होंने गंभीरता से कहा, ‘आप इन्हें फेंक दीजिए। अब इनकी कोई आवश्यकता नहीं है’।

परंतु इनकी आवश्यकता थी क्या? ‘मां ने रुष्ट होते हुए पूछा’।

सुभाष ने कहा, ‘हमारे विद्यालय के पास ही एक गरीब बुढ़िया भिखारिन रहती थी। उसका संसार में कोई नहीं था। ये रोटियां मैं रोज उसी के लिए ले जाया करता था, परंतु कल दिन में उसका देहांत हो गया, इसलिए अब इन रोटियों की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है’। इतना सुनकर मां ने द्वित हो सुभाष को अपने सीने से लगा लिया।

बीस वर्ष की आयु में सुभाष ने बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। पूरे कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्होंने दूसरा स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद उनके पिता ने उन्हें सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने की सलाह दी।

सुभाष के मन में देश की स्वाधीनता के लिए काम करने की इच्छा का जन्म हो चुका था, इसलिए वे देश में रहकर ही देश की सेवा करना चाहते थे। उन्होंने अपनी इच्छा पिता के सामने रख दी। पिता ने हलकी नाराजगी के साथ कहा, ‘सिविल सेवा की परीक्षा अत्यंत कठिन होती है। मैं जानता हूं कि तुम ऐसा करने में इसलिए आनाकानी कर रहे हो, क्योंकि तुम्हें भय है कि तुम परीक्षा में पान न हो सकोगे’। सुभाष के हृदय को पिता की यह बात शूल की तरह चुभ गई और वे तुरंत लंदन जाने के लिए तैयार हो गए। लंदन पहुंचकर सुभाष ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया और जी-तोड़ मेहनत करते हुए तैयारी शुरू कर दी। जब सिविल सेवा परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो उसमें सुभाष को चुन लिया गया था।

सिविल सेवा परीक्षा में सफलता प्राप्त कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि भारतीय युवा किसी भी कसौटी पर अंग्रेजों से पीछे नहीं हैं।

अपनी इस सफलता पर सुभाष को संतोष था कि उन्होंने समाज में अपने पिता का सिर ऊँचा कर दिया था, साथ ही उन्होंने अपने विश्वास को भी प्रमाणित कर दिखाया था। परंतु वे देश को गुलाम बनाने वाली अंग्रेज सरकार के वफादार अधिकारी बनकर आराम और सुख का जीवन नहीं बिताना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आई.सी.एस भारतीय सिविल सेवा से इस्तीफा दे दिया और फिर भारत लौट आए।

1921 में बैजवाड़ा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) को स्वंयसेवक सेना का सेनापति नियुक्त किया गया। दिसंबर 1921 में उन्हें अंग्रेज सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और 6 महीने के कारावास की सजा दी गई। यह सुभाष की पहली जेलयात्रा थी। जेल में रहते हुए ही एक दिन सुभाष ने अपने पहरे पर तैनात एक सिपाही को बुरी तरह डांट दिया, क्योंकि वह उनके सचिव को अंदर आने से रोक रहा था। सिपाही ने सुभाष की शिकायत जेल के अधिकारी से कर दी। उसके बाद उन्हें बरहामपुर जेल में स्थानांतरित कर दिया गया। कुछ दिन वहां रखकर फिर उन्हें बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। मांडले जेल में अनेक अपराधी भी कैद थे। सुभाष ने उनका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया। बर्मा के राजनीतिक कैदी तथा पादरी जेल में सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) के संपर्क में आए। बर्मा में अंग्रेजों के प्रति स्थानीय स्तर पर विरोध, वहां की राजनीति तथा गुरिल्ला युद्ध के बारे में भी उन्हें काफी महत्वपूर्ण जानकारियां मिलीं। जेल से छूटकर वे स्वदेश वापस आ गये।

जेल से बाहर आकर उन्होंने देखा कि देश की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। स्वराज पार्टी अपनी पहले वाली पकड़ खो चुकी थी, चारों तरफ हिंदू-मुसलिम दंगे भड़क चुके थे। ऐसी स्थिति में गांधीजी भी राजनीति से कुछ हटकर हरिजनोद्धार में लग गए थे। सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) गांधीजी से मिलने साबरमती आश्रम गए, परंतु दोनों की विचारधाराओं में भारी अंतर था, सुभाष बाबू को निराश लौटना पड़ा। इन सबसे उन्हें बड़ा दुःख हुआ।

इतिहास में आज का दिन – 23 जनवरी

उधर रामप्रसाद बिस्मिल, जोगेश चटर्जी, शचींद्र सान्याल आदि क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में काम कर रहे थे। उनकी योजना अंग्रेजों को बंदूक के बल पर देश से खदेड़कर स्वराज स्थापित करने की थी।

3 फरवरी 1928 को समूचे देश में कांग्रेस कार्यकारिणी ने साइमन कमीशन के विरोध में आंदोलन किया। पुलिस भी सख्ती से पेश आई। जगह-जगह लाठी चार्ज हुआ, जिसमें हजारों लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। उस अवसर पर सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) पूरे उत्साह से देश के युवा वर्ग का नेतृत्व कर रहे थे।

इसी बीच सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) ने लगभग चार साल तक यूरोप के विभिन्न देशों का दौरा भी किया था। वे देश की आजादी के लिए गांधीजी की नीतियों से हटकर किसी अन्य विकल्प की तलाश में थे।

सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) अविवाहित थे। उनकी आयु अब 37-38 वर्ष की हो चुकी थी। उन्होंन संकल्प लिया कि अब बहुत तेजी के साथ वे भारत की दुश्मन अंग्रेज सरकार पर बाघ की तरह टूट पड़ेंगे और उन्हें परास्त कर अपने देश को गुलामी से हमेशा के लिए मुक्त करा लेंगे।

8 जनवरी 1938 को वे ब्रिटेन चले गए। इधर भारत में उन्हें उनकी अनुपस्थिति में ही कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया। अध्यक्ष चुने जाने के पर सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) भारत लौट आए। इसके थोड़े ही दिनों बाद गांधीजी और सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) में विचारधारा को लेकर गहरा मतभेद उत्पन्न हो गया। गांधीजी के संकेत पर कार्यसमिति के अधिकतर सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया, जिससे आहत होकर सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) ने कांग्रेस का अध्यक्ष पर त्याग दिया।

सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) अत्यंत सक्रिय प्रवृति के व्यक्ति थे। आजादी का जुनून उनके मन-मस्तिष्क में अपनी चरम सीमा पर था। अत: बिना समय बरबाद किए उन्होंने कांग्रेस के अंदर ही अपनी नई पार्टी फॉर्वर्ड ब्लॉक का गठन कर लिया। विचारधारा और कार्यशैली में अत्यधिक असमानता होने के बावजूद सुभाष बाबू के मन में गांधीजी के प्रति गहरा आदर और सम्मान था। फिर भी, दोनों के विचार कभी एक न हो सके।

सन 1940 में सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) ने जब कलकत्ता के डलहौजी स्क्वायर में बने अंग्रेजों के स्मारक ब्लैक होल को हटाने के लिए आंदोलन किया तो अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करके जेल में भेज दिया। बाद में उस स्मारक को हटा तो लिया गया, परंतु सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) को मुक्त नहीं किया गया। इसलिए उन्होंने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी। इससे घबराकर अंग्रेज सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) को जेल से तो रिहा कर दिया गया, लेकिन उन्हें घर में ही नजरबंद करके कड़ा पहरा बैठा दिया गया।

नजरबंदी के दौरान उन्होंने एकांतवास का बहाना बनाकर धीरे-धीरे अपनी दाढ़ी बढ़ा ली। उसके बाद एक दिन वे मौलवी का वेश बनाकर और पहरेदारों को चकमा देकर काबुल चले गए। वहां कुछ नेताओं और राजदूतों से मिलने  बाद वे जर्मनी और फिर वहां से जापान जा पहुंचे। जापान में गठित ‘आजाद हिंद फौज’ की बागडोर सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) ने अपने हाथों में ले ली।

Subhas Chandra Bose

5 जुलाई, 1943 को सिंगापुर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) ने भरी सभा में भारत को स्वतंत्र कराने की घोषणा की। उन्होंने नारा दिया, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’।

नेताजी के भाषण से उस सभा में उपस्थित सभी भारतीयों की भुजाएं फड़कने लगीं। नवयुवकों ने आजादी की लड़ाई में अपना तन, मन और धन न्योछावर करने की शपथ ली। स्त्रियों ने अपने आभूषण उतारकर नेताजी को भेंट कर दिए। उपस्थित लोगों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर किए। इस संग्राम में स्त्रियां पुरुषों के कंधे-से-कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लोहा ले रही थीं। नेताजी ने अपनी आजाद हिंद फौज में भारी संख्यां में स्त्रियों को भी सैनिक रूप में भर्ती किया। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान आजाद हिंद फौज ने कई मोर्चों पर अंग्रेज सेना को पराजित किया और वह तेजी से आगे बढ़ने लगी।

लेकिन जब जापान आत्मसमर्पण कर दिया और जर्मनी भी पराजित हो गया तो, आजाद हिंद फौज को सहायता मिलनी बंद हो गई और इसके हजारों सैनिकों को बंदी बना लिया गया। लोग सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) को किसी भी तरह बंदी बनने से बचाना चाहते थे, इसलिए उन्हें 24 अप्रैल 1945 को विमान द्वारा बैंकॉक भेज दिया गया। वहां से वे सिंगापुर गए। उसके बाद वे टोकियो चले गए।

Subhas Chandra Bose

महात्मा गांधी और नेताजी सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) की राजनीतिक विचारधारा में क्रिया-पद्धति की दृष्टि से एक दूसरे के प्रति गंभीर आदर-सम्मान तथा स्नेह-भाव था। सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) ने ‘आजाद हिंद फौज’ की एक रेजीमेंट को ‘गांधी ब्रिगेड’ नाम दिया था। सुभाष बाबू सुदूर दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में बैठे युद्ध काल में महात्मा गांधी का जन्म-दिवस मनाते थे। उन्हें राष्ट्र-पिता कहने वाले सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) पहले व्यक्ति थे। फिर गांधीजी ने भी सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) के एकांत लक्ष्य के प्रतिपूर्ण समर्पण भाव और बलिदान से निष्कर्ष निकाला था कि बोस ने अपनी सेना में ऐसी एकता का भाव भर दिया था कि वे सब धार्मिक संकीर्णताओं, प्रादेशिक सीमाओं तथा जातिभेद से ऊपर उठकर आजादी के एकांत लक्ष्य के रक्त बहा सके। गांधीजी ने कहा था, सभाषचंद्र बोस की यह अपूर्व उपलब्धि इतिहास के पन्नों में उन्हें अवश्य अमर कर देगी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) के हर अनुयायी ने यही एक बात कही कि नेताजी का उन पर विलक्षण जादुई प्रभाव था, उनके नेतृत्व व पथ-प्रदर्शन में वे सब भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के निमित्त क्रियाशील रहे थे। सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) के उनकी अटूट देशभक्ति, देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के आदर्श के प्रति उनकी अपना निष्ठा और राष्ट्र के लिए उन्होंने जो घोर कष्ट सहे, उनके कारण उन्हें सदैव प्रथम श्रेणी के राष्ट्रीय वीर और भारत मां के सच्चे सपूत के रूप में अभिनंदित किया जाता रहेगा।

ऐसा माना जाता है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) जापान से रूस जाते वक्त विमान दुर्घटना में दिनांक 18 अगस्त सन 1945 को रात्रि 8:30 बजे तेइपेइ के आर्मी अस्पताल में चिरनिद्रा में लीन हो गए। वायुयान जिसमें सुभाष बैठे थे, वैसे ही तेजी से ऊपर उड़ा, जोर का विस्फोट हुआ और वायुयान गोता खाता हुआ जमीन पर आ गिरा। आग भड़क उठी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) आग से बाहर कूद पड़े। अपने कपड़ों में लगी आग बुझाने की उन्होंने कोशिश की जिन पर पेट्रोल बिखर गया था। बुरी तरह जख्मी हुए जमीन पर लेट गए। नेताजी के सिर के बाएं भाग में लगभग 4 इंच लंबा गहरा घाव था। उनकी छाती तक जल गई थी। उनका चेहरा सूजा हुआ था। वायुयान दुर्घटना में घायल इनका एक अन्य साथी रहमान जो नेताजी की बगल में ही जमीन पर पड़ा था, से सुभाष बोस ने कहा था, रहमान! तुम जब देश वापस लौटो तो मेरे देशवासियों से कहना कि अपने देश के लिए मैं अंतिम सांस तक लड़ा और अब देश के लिए प्राण दे रहा हूं। अब कोई ताकत हमारे देश को गुलाम नहीं रख सकेगी।

इसी बीच उन्हें तुरंत आर्मी अस्पताल तेइपेइ में भर्ती किया गया और दो जापानी डॉक्टरों ने उनका इलाज किया, उनकी जीवन-रक्षा का भरसक प्रयास किया परंतु नेताजी को बचाया नहीं जा सका और दुर्भाग्य से भारत का यह सूर्य सर्वदा के लिए अस्त हो गया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस (Subhas Chandra Bose) का अंतिम संस्कार 20 अगस्त 1945 को तेइपेइ के शव-दाहन में किया गया। ऐसा माना जाता है कि उसी विमान दुर्घटना में नेताजी की मौत हुई लेकिन अभी भी कई लोगों का मानना है कि ये सभी घटनाएं अंग्रेजों से अपना पीछा छुड़ाने के लिए नेता जी ने स्वंय रची थी और वे चुपके से भेष बदलकर भारत आए और यहां पर अंडरग्राउंड होकर देश की आजादी के अपनी लड़ाई को जारी रखा। नेताजी के ओजस्वी भाषण व उनकी शिक्षाएं आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

 

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