उर्दू अदब के बादशाह थे मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब

Mirza Ghalib

Mirza Ghalib Death Anniversary: 

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’

शर्म तुम को मगर नहीं आती

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

पूछते हैं वो कि ‘गालिब’ कौन है?

कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या

मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) उर्दू शायरी की एक रोशन मीनार थे। उन्हें उर्दू अदब का बादशाह भी कहा जा सकता है। उर्दू शायरी के वे उस्ताद थे उनका एक-एक शेर, शायरी और फलसफे की तालीम से कम नहीं है।

Mirza Ghalib

उर्दू साहित्य में मिर्जा असद उल्लाह खां ग़ालिब (Mirza Ghalib) का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है उनकी शायरी में जिंदगी के बीच सभी रंग मौजूद हैं जिनके कारण उनकी शायरी हर दिल अजीज बन गई है।

अपनी शायरी के बारे में उन्होंने एक शेर कहा था जो शायरी के शौकीनों की जगह पर रहता है-

ये मसाइले तसव्वुफ़, ये तेरा बयान ‘ग़ालिब’,

तुझे हम वली समझते, जो ना बादाख़्वार होता।

उर्दू अदब के मकबूल शायर मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib) का नाम किसी तअर्रूफ का मोहताज नहीं। उनकी एक-एक शेर खुद बोलकर उनका तअर्रूफ दे पाने की हैसियत रखता है। मिर्जा गालिब के अशआर को पढ़कर उन्हें उनकी जिंदगी से वाकिफ हुआ जा सकता है।

ग़ालिब (Mirza Ghalib) का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। उनके पिता का नाम अब्दुल्ला बेग खां था। गालिब जब 5 साल के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया जिसके बाद उनकी परवरिश उनके चाचा नसरुल्लाह बेग खां ने की। लेकिन 1 साल बाद 6 साल के असद को अपने चाचा के प्यार से भी महरूम होना पड़ा और असद अपने ननिहाल पहुंच गए जहां उनका बचपन बड़े ऐशो-आराम के बीच गुजरा। गालिब की शादी 13 वर्ष की उम्र में नवाब इलाही बख्श खान की बेटी उमराव बेगम से हुई। गालिब की सात संतानें हुईं, पर कोई भी जीवित नहीं रह सकी।

शादी के 3 वर्ष बाद गालिब दिल्ली चले आए और दिल्ली के ही होकर रह गए। गालिब का ज्यादातर कलाम फारसी में है क्योंकि उन दिनों उर्दू भाषा का इस्तेमाल करना शान के खिलाफ समझा जाता था। लेकिन गालिब ने उर्दू में शायरी की। उनकी शायरी में भी फारसी शब्दों का भरमार है और इसलिए उनकी शायरी आम आदमी की समझ से बहुत दूर है लेकिन उनका नाम उर्दू शायरों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर है।

गालिब ने हर मोर्चे पर अपनी फन का मुजाहरा करके साबित कर दिखाया की गालिब वाकई गालिब हैं। गालिब छोटे से छोटे विषय को भी अपनी कलम से ऐसी शक्ल दे देते थे कि उसकी अहमियत का दायरा और भी बड़ा लगने लगता था।

शराब की लत के कारण गालिब (Mirza Ghalib) हमेशा ही तंगदस्त रहे। वजीफे और पेंशन की राशि की से ही उनकी गुजर बसर होती रही, 15 फरवरी 1869 को दिल्ली में उनका निधन हो गया। हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास ही ग़ालिब की मजार है जहां आज भी उनके चाहने वाले उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दिया करते हैं।

कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,

रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।

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