माधवराव सप्रे जयंती: ‘हिन्दी मेरी मौसी है और इसी ने मुझे पाला-संभाला, इसीलिए जो कुछ भी मुझसे सेवा बनी, मौसी की ही कर पाया’

सप्रेजी (Madhavrao Sapre) ने अदम्य राष्ट्रीय चेतना, गौरवशाली सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा के बीच जीवन्त और प्रखर पत्रकारिता का इतिहास रचा। हिन्दी और देशसेवा में आजीवन संलग्न रहनेवाले सप्रेजी के मन में अपनी राष्ट्रभाषा और देश के प्रति समर्पण का भाव कहीं अधिक गहरा है

माधवराव सप्रे, Madhavrao Sapre Anniversary

Madhavrao Sapre(पं. माधवराव सप्रे )

Madhavrao Sapre(माधवराव सप्रे) Birth Anniversary: ‘मराठी मेरी मातृभाषा है, पर मैं अपनी मां की गोद में नहीं पला हूं। हिन्दी मेरी मौसी है और यही मुझे पाला-संभाला करती है इसीलिए जो कुछ भी मुझसे सेवा बनी, मौसी की ही कर पाया।’ निस्संदेह मौसी के इस प्रेम से माधवराव सप्रे (Madhavrao Sapre) कभी नहीं उबर पाये और उन्होंने अपना पूरा जीवन हिन्दी मौसी की सेवा में समर्पित कर दिया। हिन्दी की प्रेरक शक्ति बनकर उन्होंने महावीरप्रसाद द्विवेदी जैसी भूमिका निभायी, राष्ट्र भाषा हिन्दी का स्वरूप निर्धारण कर उसका सम्वर्द्धन किया, साहित्यिक पत्रकारिता की आधारशिला रखी। साथ ही उसे स्वातन्त्र्य आन्दोलन में जागृति और आक्रमण का हथियार बनाया। स्वदेश-प्रेंम की स्याही में डूबी उनकी कलम प्रबल राष्ट्रीय चेतना का संवाहक बनी।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली वीरांगना- जिसने अकेले बजा दी अंग्रेजी हुकूमत की ईंट से ईंट, फिर भी इनका गुणगान करते नहीं थकते थे फिरंगी

तेजस्वी और जुझारू पत्रकार माधवराव सप्रे (Madhavrao Sapre) का जन्म मध्य प्रदेश के सागर जिले के ‘पथरिया गांव में सन् 1871 में हुआ था और निधन 23 अप्रैल, 1926 को। सप्रेजी ने जिस समय लेखन के क्षेत्र में कदम रखा उस समय हिन्दी गद्य घुटनों के बल चलना सीख रहा था। हिन्दी गद्य लेखकों को उपहास की मुद्रा में ‘कत्थक कहा जाता था। ऐसे समय सप्रेजी ने अपनी जोरदार घोषणा में हिन्दी गद्य की वकालत की-‘जिन लोगों की रुचि गद्य की और नहीं झुकती, जो लोग गद्य लिखनेवालों को कत्थक कहते हैं उनके लिए यही उपाय है कि हिन्दी के सुलेखक निराशा से हत न होकर धीरे-धीरे अपना कर्तव्य करते जाएँ आज नहीं तो कल, दस-बीस वर्षों में कभी-न-कभी पठित समाज पर यह बात विदित हो जाएगी कि हिन्दी साहित्य का गद्य साहित्य, बिना गद्य लेखकों के पूरा नहीं होगा।’

सप्रेजी (Madhavrao Sapre) ने हिन्दी भाषा के परिष्कार के साथ-साथ पाठकों में साहित्यिक संस्कार पैदा करने का संकल्प लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा। हिन्दी गद्य को सुव्यवस्थित करने में उनके द्वारा सम्पादित पत्रों का बहुत बड़ा योगदान है। इन पत्रों ने न केवल हिन्दी शक्ति का बोध कराया बल्कि उसे समालोचना, हिन्दी निबन्ध और कहानी आदि से समृद्ध भी किया। सप्रे जी ने पत्रकारिता की शुरुआत ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ नामक मासिक पत्र से की। इस पत्र ने ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मल’ इस मन्त्र को अपनाकर हिन्दी का भरपूर भतार किया। साहित्यिक पत्रकारिता को राह दिखाई। इसे हिन्दी का पहला समालोचनात्मक पत्र माना गया। इसी पत्र को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी देने का श्रेय प्राप्त हुआ। सप्रेजी की ‘टोकरी भर मिट्टी’ कहानी इसी में प्रकाशित हुई। इसमें खड़ी बोली हिन्दी-काव्य के संवाहक श्रीधर पाठक की महत्त्वपूर्ण कृतियों को समालोचना प्रकाशित हुई।

महावीरप्रसाद द्विवेदी, द्वारका प्रसाद मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी आदि अनेक लेखकों को प्रारम्भिक रचनाएं इसी पत्र में प्रकाशित हुई। प्रबुद्ध पाठकों, लेखकों के बीच ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ अत्यन्त लोकप्रिय हुआ। लेकिन पत्रकारिता को मात्र मनोरंजन और चटपटी सामग्री परोसने का जरिया समझनेवालों ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि इसमें समस्यापूर्ति नहीं है, युद्ध के समाचार नहीं हैं। इसमें चटकीली चटनी और गपशप की बातें नहीं हैं, समालोचना-ही-समालोचना भरी है। उन लोगों के लिए सप्रेजी का जवाब था-‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का उद्देश्य कुछ और है। आम में इमली का स्वाद ढूंढ़ने का वृथा श्रम क्यों उठाते हैं। लगातार आर्थिक संघर्षों से जूझते हुए तीन वर्ष तक सप्रेजी (Madhavrao Sapre) ने इस पत्र का सम्पादन किया।

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के बन्द हो जाने पर सप्रेजी (Madhavrao Sapre) ने नागपुर के ‘देश सेवक’ प्रेस में नौकरी करते हुए ‘हिन्दी ग्रन्थमाला’ के प्रकाशन की योजना बनायी। इसके माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जन जागरण के अभियान की भूमिका तैयार की। इसी समय भारतीय राजनीति में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे’ नारा गूंज उठा। सप्रेजी भी तिलक के सम्पर्क में आये और उन्होंने उनके मराठी पत्र ‘केसरी’ का नागपुर से ‘हिन्दी केसरी’ नाम से हिन्दी संस्करण प्रकाशित करना शुरू कर दिया। इस पत्र के माध्यम से सप्रेजी प्रखर पत्रकारिता की गौरवमयी परम्परा के अगुआ बने। उन्होंने ‘हिन्दी केसरी’ को स्वतन्त्रता-आन्दोलन का सक्षम सेनानी बना दिया। इससे न जाने कितने भारतीयों को देशभक्ति की स्फूर्ति मिली।

‘हिन्दी केसरी’ के दूसरे वर्ष में प्रवेश करने पर जो सम्पादकीय लिखे गये वे अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला देने की शक्ति रखते थे। उसके एक अंक में ‘सरकार की दमन नीति और भारत माता के पूतों का कर्तव्य’ शीर्षक से सम्पादकीय और तिलक के दो लेखों के अनुवाद प्रकाशित हुए। इन प्रकाशनों के कारण सप्रेजी (Madhavrao Sapre) को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी हिन्दी राजनीतिक पत्रकारिता के इतिहास की पहली गिरफ्तारी थी। सप्रेजी के जेल जाने पर उनके बड़े भाई को नौकरी खतरे में पड़ी। परिवार के भूखों मरने आशंका से डरे बड़े भाई द्वारा आत्महत्या करने की धमकी तथा मित्रों के दबाव में सप्रेजो ने क्षमापत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। माफी मांगने पर सप्रेजी की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। उनके अन्य राष्ट्रीय कार्यों और क्रान्तिकारी विचारों को अनदेखा कर जन समाज ने उन्हें स्वदेशद्रोही, डरपोक, विश्वासघाती कहकर तिरस्कृत किया। पश्चाताप की आग में जलते हुए सप्रेजी ने अज्ञातवास ले लिया सिर तथा पैरों में कुछ पहनना उन्होंने हमेशा के लिए त्याग दिया।

अज्ञातवास के बाद रचनात्मक कार्यों के लिए प्रतिबद्ध हो सप्रेजी (Madhavrao Sapre) ने पुनः सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। उनकी प्रेरणा व सहयोग से माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पादन में ‘कर्मवीर’ पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ। इसे सप्रेजी का ‘सच्चा स्मारक’ कहा गया। पत्रकारिता के साथ साथ सप्रेजी ने स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट’, ‘जीवन संग्राम में विजय प्राप्ति के कुछ उपाय’, ‘हिन्दी दासबोध’ और ‘भारतीय युद्ध’ जैसे ग्रन्थों की रचना की। ‘स्वदेशी आन्दोलन और बायकॉट’ अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध सप्रेजी का साहसिक कदम था, जिसे अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया।

सप्रेजी (Madhavrao Sapre) ने अदम्य राष्ट्रीय चेतना, गौरवशाली सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा के बीच जीवन्त और प्रखर पत्रकारिता का इतिहास रचा। हिन्दी और देशसेवा में आजीवन संलग्न रहनेवाले सप्रेजी के मन में अपनी राष्ट्रभाषा और देश के प्रति समर्पण का भाव कहीं अधिक गहरा है इसीलिए मरने से पूर्व उन्होंने कहा, ‘मुझे मोक्ष प्यारा नहीं, मैं फिर से जन्म नगा देश का तो मोक्ष अभी हुआ नहीं।’

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