झारखंड: हिंदू-मुस्लिम एकता की पहचान है गिरिडीह का ये मंदिर और मस्जिद

यहां केवल एक घर के फासले पर मंदिर और मस्जिद मौजूद हैं, लेकिन दोनों ही समुदाय प्रेम से अपने रीति-रिवाजों को पूरा करते हैं।

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गिरीडीह: झारखंड (Jharkhand) के गिरिडीह में हिंदू मुस्लिम एकता की एक खूबसूरत कहानी सामने आई है। मामला डुमरी का है, यहां केवल एक घर के फासले पर मंदिर और मस्जिद मौजूद हैं, लेकिन दोनों ही समुदाय प्रेम से अपने रीति-रिवाजों को पूरा करते हैं। दोनों ही समुदायों के बीच आज तक किसी तरह की अप्रिय घटना नहीं हुई।

बता दें कि सन 1801 से गिरिडीह के डुमरी में दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी। जब यहां मंदिर बना था, तब लगभग 30 से 40 किलोमीटर तक दुर्गाजी का कोई मंदिर नहीं था।

उस समय बगोदर, धनबाद के तोपचाची प्रखण्ड, पीरटांड़ प्रखंड, बोकारो के नावाडीह प्रखण्ड से दुर्गा पूजा का उत्सव मनाने के लिए लोग अपनी बैल गाड़ियों और साइकिलों के सहारे आते थे।

कहा जाता है कि पहले यहां भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जब डुमरी आए तो उन्होंने यहां के लोगों को समझाया और बलि प्रथा को बंद करवाया। इसके बाद से लोग यहां वैष्णवी पूजा करने लगे।

कहा जाता है कि महात्मा गांधी के उपदेशों से प्रेरित होकर लोगों ने पूजा व्यवस्था में कई परिवर्तन किए, जिसके आधार पर अभी भी कार्य किए जा रहे हैं।

आजादी के दौरान यहां खपरैल का मंदिर बनाया गया था। कुछ दिनों के बाद डुमरी थाना में एक मुस्लिम दरोगा निसार हुसैन आए और उन्होंने खपरैल की जगह पक्का मंदिर बनवाया और एक मस्जिद का भी निर्माण किया।

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मंदिर में सोने का टीका, अंगूठी, नथिया पहनाकर माता पूजन किया जाता है। रोज शाम को यहां महिलाएं भजन में शामिल होने व दीपक जलाने के लिए पहुंचती हैं।

जहां एक तरफ मंदिर में घंटी बजती है, वहीं दूसरी तरफ मस्जिद में अजान होती है। डुमरी के इतिहास में आज तक दोनों मजहब के लोग मंदिर और मस्जिद को लेकर किसी उन्माद में नहीं फंसे। डुमरी के निवासी चाहें मुस्लिम हों या हिंदू, एक दूसरे का सम्मान करना नहीं छोड़ते हैं।

कोरोना का बावजूद यहां पूजा की परंपरा नहीं रुकेगी, लेकिन इस साल प्रशासन के आदेश की वजह से भीड़-भाड़ नहीं होगी।

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