जानें क्या है पत्थलगड़ी आंदोलन और उसके पीछे की पूरी कहानी…

झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है। इसकी एक अलग परंपरा और संस्कृति है। पत्थलगड़ी (शिलालेख) भी इसी परंपरा का एक हिस्सा है। पत्थलगड़ी (Pathalgadi) यानी पत्थर गाड़ना।

Pathalgadi Movement

पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) 2017-18 में तब शुरू हुआ, जब बड़े-बड़े पत्थर गांव के बाहर शिलापट्ट की तरह लगा दिए गए।

Pathalgadi Movement: झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है। इसकी एक अलग परंपरा और संस्कृति है। पत्थलगड़ी (शिलालेख) भी इसी परंपरा का एक हिस्सा है। पत्थलगड़ी (Pathalgadi) यानी पत्थर गाड़ना। आदिवासियों के बीच गांव और जमीन के सीमांकन के लिए, मृत व्यक्ति की याद में, किसी की शहादत की याद में, खास घटनाओं को याद रखने के लिए पत्थर गाड़ने का चलन लंबे समय से चला आ रहा है।

Pathalgadi Movement
पत्थलगड़ी आंदोलन 2017-18 में शुरू हुआ।

आदिवासी पत्थलगड़ी (Pathalgadi) को जमीन की रजिस्ट्री के पेपर से भी ज्यादा अहम मानते हैं। इसके साथ ही किसी खास निर्णय को सार्वजनिक करना, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने के लिए भी पत्थलगड़ी किया जाता है। यह मुंडा, संथाल, हो, खड़िया आदिवासियों में सबसे ज्यादा प्रचलित है। पत्थलगड़ी को लेकर राज्य के खूंटी, गुमला, सिमडेगा, चाईबासा, सरायकेला जैसे स्थानों पर पत्थर गाड़ कर सीमांकन किया जाता है। यानी इसके अंदर इन क्षेत्रों की पारंपरिक ग्राम आदिवासी समाज का अपना कानून लागू होगा। किसी बाहरी का प्रवेश निषेध रहता है। कोई बाहरी आदमी इस क्षेत्र में बिना ग्राम प्रधान की अनुमति के प्रवेश नहीं कर सकता है। यही बातें पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) की मूल हैं।

पत्थलगड़ी आंदोलन और इसका इतिहास

पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) 2017-18 में तब शुरू हुआ, जब बड़े-बड़े पत्थर गांवों के बाहर शिलापट्ट की तरह लगा दिए गए। यह सिलसिला शुरू हुआ जो एक आंदोलन के रूप में व्यापक होता चला गया। लिहाजा इसे पत्थलगड़ी आंदोलन का नाम दिया गया। इस आंदोलन के तहत आदिवासियों ने बड़े-बड़े पत्थरों पर संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासियों के लिए दिए गए। अधिकारों को लिखकर उन्हें जगह-जगह जमीन पर लगा दिया गया। संविधान की पांचवीं अनुसूची में मिले अधिकारों के तहत झारखंड के कई इलाकों में पत्थलगड़ी कर इन क्षेत्रों की पारंपरिक ग्राम सभाओं के सर्वशक्तिशाली होने का ऐलान किया गया था।

यह कहा गया था कि इन इलाकों में ग्राम सभाओं की इजाजत के बगैर किसी बाहरी शख्स का प्रवेश प्रतिबंधित है। इन इलाकों में खनन और दूसरे निर्माण कार्यों के लिए ग्राम सभाओं की इजाजत जरूरी थी। इसी को लेकर कई गांवों में पत्थलगड़ी महोत्सव आयोजित किए गए। इस कार्यक्रम में हजारों आदिवासी शामिल हुए। लेकिन इसको लेकर राज्य के कई हिस्सों में विवाद और अराजकता की स्थिति बन गई थी। यह आंदोलन काफी हिंसक भी हुआ। इस दौरान पुलिस और आदिवासियों के बीच जमकर संघर्ष हुआ।

पत्थलगड़ी आंदोलन के प्रेरणास्त्रोत

देशभर में चल रहे पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) का केंद्र गुजरात के तापी जिला का कटास्वान नाम की जगह है। यह गुजरात और महाराष्ट्र की सीमा का भील आदिवासी बहुत इलाका है। यहां के निवासी रहे कुंवर केसरी सिंह को पत्थलगड़ी का प्रेरणास्त्रोत माना जाता है। वह एक वकील थे। उन्होंने आदिवासियों के स्वशासन की मांग की थी। उनकी कार पर नंबर प्लेट की जगह ‘आवर लाइट, हेवेन्स गाइड’ लिखा रहता था। उन्होंने देश में विभिन्न जगहों पर काम कर रही आदिवासी स्वशासन की संस्थाओं को भारत सरकार घोषित किया था।

जब एसपी के साथ 300 पुलिसकर्मियों के बना लिया गया बंधक

अगस्त, साल 2017 में खूंटी जिले में पत्थलगड़ी (Pathalgadi) की सूचना पाकर पुलिस पहुंची। वहां गांववालों ने बैरिकेडिंग कर रखी थी। थानेदार जब कुछ पुलिसबल के साथ वहां पहुंचे तो उन्हें बंधक बना लिया गया। सूचना पाकर जिले के एसपी अश्विनी कुमार लगभग 300 पुलिसकर्मियों को लेकर उन्हें छुड़ाने पहुंचे तो उन्हें भी वहां बंधक बना लिया गया। लगभग रातभर उन्हें बिठाए रखा, सुबह जब खूंटी के जिलाधिकारी वहां पहुंचे तब लंबी बातचीत के बाद गांववालों ने उन्हें छोड़ा। इसके बाद मामले ने तूल पकड़ लिया।

इसके बाद जून, 2018 में पूर्व लोकसभा स्पीकर कड़िया मुंडा के गांव चांडडीह और पड़ोस के घाघरा गांव में आदिवासियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़पें हुईं। पुलिस फायरिंग में एक आदिवासी की मौत हो गई। वहीं पुलिस ने कई जवानों के अपहरण का आरोप लगाया। बाद में जवान सुरक्षित लौटे। इस संबंध में कई थानों में देशद्रोह की एफआईआर दर्ज हुई थी।

छत्तीसगढ़ और ओडिशा में पत्थलगड़ी आंदोलन

छत्तीसगढ़ में साल 2017 के नवंबर में पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) शुरू हुआ। यहां इसका नेतृत्व बलदेव सिंह धुड़बे कर रहे हैं। दुर्ग और बालोद जिले में कंगलामांझी सरकार आज भी चल रही है। इनके पास अपनी सेना है, वे परेड करते हैं, साल में एक बार राजसभा का आयोजन होता है। देशभर के कई आदिवासी नेता इसमें शामिल होते हैं। ये भी भारत सरकार को नहीं मानते। वहीं, ओडिशा में पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) का नेतृत्व बीरमित्रापुर के एमएलए जॉर्ज तिर्की कर रहे हैं। उनका नारा है- ”न हिन्दुस्तान न पाकिस्तान, हमें चाहिए आदिवासिस्तान।” वह एक ट्राइबल कॉरिडोर बनाना चाहते हैं।

क्या है आदिवासियों का डर

पत्थलगड़ी आन्दोलन (Pathalgadi Movement) की वजह जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों की निजी जिंदगी में बाहरी लोगों द्वारा किया जाने वाला हस्तक्षेप है। दरअसल, आदिवासियों को यह डर है कि सरकारें अंग्रेजों के जमाने में बनी छोटा नागपुर काश्तकारी कानून में संशोधन कर उनकी जमीन छीनने की कोशिश कर रही हैं। गौरतलब है कि साल 2016 में सरकार छोटा नागपुर काश्तकारी कानून में संशोधन करने की कोशिश की लेकिन पूरे राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था।

बीजेपी सरकार ने छोटा नागपुर टेनेंसी ऐक्ट (सीएनटी) और संथाल परगना टेनेंसी ऐक्ट (एसपीटी) में कुछ बदलाव किए थे। इन बदलावों के खिलाफ लोगों ने प्रदर्शन किए थे। इन प्रदर्शनों में हिस्सा लेने के चलते कई लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था। हालांकि, झारखंड का सीएम बनते ही हेमंत सोरेन ने पहली कैबिनेट में फैसला लिया था कि पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement), सीएनटी और एसपीटी आंदोलन के दौरान लोगों के खिलाफ दर्ज किए गए मुकदमे वापस लिए जाएंगे।

समर्थक देते हैं पांचवी अनुसूची का हवाला

पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) के नेताओं, आंदोलनकारियों और समर्थक पांचवी अनुसूची का हवाला देते हैं। पांचवी अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों में संसद या विधानमंडल का कोई भी सामान्य कानून लागू नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 15 (पारा 1-5) के तहत ऐसे लोग जिनके गांव में आने से यहां की सुशासन शक्ति भंग होने की संभावना है, तो उनका आना-जाना, घूमना-फिरना वर्जित है। यहां संसद या विधानमंडल से पारित कानूनों को सीधे लागू नहीं किया जा सकता। संविधान के अनुच्छेद 13(3) के तहत रूढ़ी और प्रथा ही विधि का बल है और आदिवासी समाज रूढ़ी और प्रथा के हिसाब से ही चलता है।

वैसे सच्चाई यह है कि किस प्रथा को नियम माना जाए, इसकी व्याख्या संविधान के अनुसार होती है। हर प्रथा को कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती। वन अधिकार कानून 2006 और नियमगिरी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि ग्रामसभा को गांव की संस्कृति, परंपरा, रूढ़ि, विश्वास, प्राकृतिक संसाधन आदि की सुरक्षा का संपूर्ण अधिकार है। इसका अर्थ है कि अगर ग्रामसभा को लगता है कि बाहरी लोगों के प्रवेश से उसकी इन चीजों को खतरा है तो वह उनके प्रवेश पर रोक लगा सकती है।

आदिवासी इलाकों के विकास में बाधक

वहीं, आज-कल इन इलाकों में ‘अबुआ धरती, अबुआ राज (अपनी धरती, अपना राज), अब चलेगा ग्राम सभा का राज’ जैसे नारे गूंजते हैं। हालांकि इन गांवों में किसी के आने-जाने पर सीधी रोक तो नहीं पर अनजान व्यक्ति को टोका जरूर जाता है। तीर-कमान से लैस युवक हर गतिविधियों पर पैनी नजर रखते हैं। हालांकि, कई ग्राम प्रधानों को पत्थलगड़ी आंदोलन (Pathalgadi Movement) का यह स्वरूप उचित नहीं लगता है। उनका मानना है कि सरकार की विकास योजनाओं का लाभ नहीं लेंगे तो क्षेत्र में बेहतरी नहीं आएगी।

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