भीमा मंडावी हत्याकांड और छत्तीसगढ़ में ‘लाल आतंक’ का खूनी इतिहास

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 9 अप्रैल को नक्सलियों ने एक बड़े हमले को अंजाम दिया। 2019-लोकसभा चुनाव से ठीक दो दिन पहले नक्सलियों ने IED ब्लास्ट कर भाजपा विधायक भीमा मंडावी समेत पांच लोगों को मौत के घाट उतार दिया।

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भीमा मंडावी की हत्या और लाल आतंक का खूवी इतिहास।

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 9 अप्रैल को नक्सलियों ने एक बड़े हमले को अंजाम दिया। 2019-लोकसभा चुनाव से ठीक दो दिन पहले नक्सलियों ने IED ब्लास्ट कर भाजपा विधायक भीमा मंडावी समेत पांच लोगों को मौत के घाट उतार दिया। 9 अप्रैल की वारदात से ठीक 5 रोज पहले, 4 अप्रैल को कांकेर के पंखाजुर इलाके में नक्सलियों ने बीएसएफ की बटालियन पर हमला किया था। जिसमें 4 जवान शहीद हो गए थे। इसके अगले ही दिन माओवादियों ने धमतरी जिले में गश्त कर रही सीआरपीएफ की टीम को निशाना बनाया। इस हमले में सीआरपीएफ का एक जवान शहीद हो गया।

नक्सल गतिविधियों में आई सक्रियता का आंकलन दो तरह से हो सकता है। एक जो ऊपरी तौर पर दिखता है। लोकतंत्र और चुनाव नक्सलियों के टारगेट नंबर वन हैं। उनकी पूरी मुहिम ही लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया को कमजोर करना है। यही उनका लक्ष्य है। इसलिए किसी भी कीमत पर चुनाव के समय अपना वजूद दिखाना उनकी आवश्यकता भी है और मजबूरी भी। साथ ही एक संकेत भी है सबको कि नक्सलवाद अभी भी जिंदा है क्योंकि पिछले कुछ समय में नक्सलियों की शक्ति, प्रासंगिकता और दायरे के बारे में वाजिब सवाल उठ रहे हैं जो आंकड़ों पर आधारित हैं।

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पिछले कुछ सालों में नक्सली हिंसा की वारदातों में लगातार गिरावट दर्ज हुई है। चार पांच साल पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा नक्सली सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में मारे जा रहे हैं और आत्मसमर्पण कर रहे हैं। उसी अनुपात में सुरक्षाकर्मियों और आम नागरिकों के हताहत होने की संख्या में कमी दर्ज हुई है। नक्सलियों को मिलने वाली आर्थिक मदद और रसद पर भी खासी नकेल कसी जा रही थी। इसलिए चुनावों के समय शायद नक्सलियों के लिए आवश्यक हो गया था कि वह किसी भी तरह सुर्खियों में आएं।

पिछले करीब एक दशक में नक्सलियों ने दर्जनों बड़े हमले किए हैं, जिसमें सैकड़ों मौतें हुई हैं। अधिकतर मौतें सीआरपीएफ के जवानों की हुई हैं और ज्यादातर हमले छत्तीसगढ़ के सुकमा एवं दंतेवाड़ा में हुए हैं। नक्सलियों की तरफ से अब तक का सबसे बड़ा हमला 6 अप्रैल, 2010 को दंतेवाड़ा में हुआ था। इस हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हो गए थे। यह हमला दंतेवाड़ा के मुकराना के घने जंगलों में हुआ था। जहां सीआरपीएफ के जवान गश्ती कर रहे थे। इस हमले में सीआरपीएफ के अधिकतर जवान शहीद हो गए थे, कुछ ही लोग बच पाए थे।

दंतेवाड़ा में हुए इस भयावह खूनी खेल के ठीक तीन साल बाद नक्सलियों ने 25 मई, 2013 को सुकमा जिले के दरभा घाटी में एक और बड़े हमले को अंजाम दिया था। इस बार उनके टार्गेट पर कांग्रेस के नेता थे। नक्सलियों के इस हमले में 30 कांग्रेसी नेताओं की मौत हो गई थी। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा और नंद कुमार पटेल की मौके पर ही मौत हो गई थी। वहीं इस हमले में घायल पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल की इलाज के दौरान मृत्यु हो गई थी।

सुकमा का ज़ख़्म अभी भरा भी नहीं था कि इस हमले के एक साल के भीतर ही नक्सलियों ने सुकमा में ही एक और बड़ी घटना को अंजाम दिया। 11 मार्च, 2014 को उसी सुकमा में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के जवानों को निशाना बनाया। इस हमले में सीआरपीएफ के 15 जवान शहीद हो गए थे। नक्सलियों का यह खूनी खेल खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। सुकमा सीआरपीएफ बल पर हमले के ठीक एक महीने बाद 12 अप्रैल, 2014 को बीजापुर और दरभा घाटी में नक्सलियों ने चुनाव के दौरान हमला कर दिया। इस हमले में 5 जवान शहीद हो गए थे और 7 मतदानकर्मी भी मारे गए थे।

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11 मार्च, 2017 सुकमा की धरती एक बार फिर से लाल आतंक का शिकार हुई। इस बार फिर से लाल आतंकियों ने सीआरपीएफ की टीम को निशाना बनाया। इस हमले में 11 जवान शहीद हुए थे। इसके डेढ़ महीने बाद फिर सुकमा नक्सलियों की हिंसा का गवाह बना। 24 अप्रैल, 2017 को नक्सलियों ने सुकमा के बुर्कापाल में सीआरपीएफ के जवानों की आरओपी पार्टी पर हमला किया, जिसमें सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद हो गये थे।

13 मार्च, 2018 को सुकमा में नक्सलियों द्वारा किए गए आईईडी ब्लास्ट में सीआरपीएफ के 9 जवान शहीद हो गए थे। वहीं, 27 अक्टूबर, 2018 को बीजापुर में नक्सलियों ने आईईडी ब्लास्ट में सीआरपीएफ के वाहन को उड़ा दिया था, जिससे सीआरपीएफ के चार जवान शहीद हो गए थे। इस हमले के तीन दिन बाद 30 अक्टूबर, 2018 को दंतेवाड़ा में दूरदर्शन की टीम पर नक्सलियों ने बड़ा हमला किया था। इस हमले में नक्सलियों ने दूरदर्शन के एक कैमरामैन की हत्या कर दी थी। इस हमले में सीआरपीएफ के दो जवान भी शहीद हो गए थे।

ऊपर दिए गए आंकड़ों से शायद ये एहसास नहीं होता कि नक्सली दरअसल जमीन पर बैकफुट पर हैं। और पिछले कुछ वर्षों में उनका दायरा भी खासा सिमट गया है। पिछले 4-5 साल और उससे पहले के सालों के बीच जब हम तुलनात्मक और आंकड़ों पर आधारित आंकलन करते हैं तभी यह बात स्पष्ट हो पाती है कि नक्सली गतिविधियां कितनी कम और कमजोर हुई हैं। बेशक लाल आतंक चाहे ढलान पर है लेकिन जितने कारनामों को वे अंजाम देने में अभी भी कामयाब हो जाते हैं वह भी कतई स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। इसलिए आवश्यकता है और अधिक मुस्तैदी और सतर्कता की।

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