पुण्यतिथि विशेष: हिंदी साहित्य में व्यंग्य को मनोरंजन के दायरे से निकाल कर मारक हथियार बनाने वाले व्यंग्यकार थे हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai) को उनके व्यंग्य संग्रह ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए साल 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

Harishankar Parsai हरिशंकर परसाई

Harishankar Parsai death anniversary II हरिशंकर परसाई पुण्यतिथि

हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai) हिंदी साहित्य जगत के महान व्यंगकारों और प्रसिद्ध लेखकों में से एक थे। व्यंग्य को हिंदी साहित्य में एक विधा के रूप में पहचान दिलाने वाले हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai) ने व्यंग्य को मनोरंजन की पुरानी व परंपरागत परिधि से बाहर निकालकर समाज कल्याण से जोड़कर प्रस्तुत किया। इनके माध्यम से उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और शोषण पर व्यंग्य किए जो आज भी प्रासंगिक हैं। हालांकि, उन्होंने कहानी, उपन्यास और संस्मरण भी लिखे, लेकिन उन्हें उनके व्यंग्य के जरिए किए जाने वाले तीखे प्रहार के लिए अधिक जाना जाता है।

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परसाई जी (Harishankar Parsai) के कई मशहूर निबंध संग्रह हैं, जिसमें ‘तब की बात और थी’, ‘भूत के पांव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, ‘पगडंडियों का जमाना’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘वैष्णव की फिसलन’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘माटी कहे कुम्हार से’, ‘शिकायत मुझे भी है’ और ‘हम इक उम्र से वाकिफ हैं’ प्रमुख हैं। हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai) का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद के जमानी में 22 अगस्त, 1924 को हुआ था। वन विभाग में उनकी सरकारी नौकरी थी। परसाई जी की पहली रचना 23 नवंबर, 1947 को प्रहरी में ‘पैसे का खेल’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। कुछ लोग मई, 1948 में प्रहरी में ही छपी ‘स्वर्ग से नरक’ को उनकी पहली रचना बताते हैं। उन्होंने नौकरी छोड़ी और लेखन को आजीविका का साधन बनाया।

15 अगस्त, 1947 को जब देश आजाद हुआ और आदर्शवादिता चरम पर थी, तब भी उन्होंने शोषण की सच्चाई को न केवल देखा बल्कि लिखा भी। उन्होंने ‘धोखा’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘भीतर के घाव’, ‘भूख के स्वर’ और स्मारक’, ‘जिंदगी और मौत’, ‘दुःख का ताज’, ‘क्रांतिकारी की कथा’, ‘पवित्रता का दौरा’, ‘भोलाराम का जीव’, ‘ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड’, ‘यस सर’, ‘वह जो आदमी है न’, ‘शर्म की बात पर ताली पीटना’ और ‘इंस्पेक्टर मातादीन’ जैसे बेहद चर्चित और लोकप्रिय व्यंग्य लिखे। उनकी व्यंग्य रचनाएं हमारे मन में गुदगुदी पैदा नहीं करतीं। बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती है, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है।

परसाई जी (Harishankar Parsai) ने लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन-मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान-सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में खास किस्म का अपनापा है। जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। परसाई जी जबलपुर रायपुर से निकलने वाले अखबार ‘देशबंधु’ में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-‘पूछिये परसाई से’। पहले हल्के इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे।

परसाई जी (Harishankar Parsai) ने धीरे-धीरे लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार करते थे। हरिशंकर परसाई (Harishankar Parsai) को उनके व्यंग्य संग्रह ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए साल 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 10 अगस्त, 1995 को परसाई का जबलपुर में निधन हो गया। उन्होंने अपने एक व्यंग कथा में लिखा- ‘आपके नाम पर सड़कें हैं- महात्मा गांधी मार्ग, गांधी पथ। इनपर हमारे नेता चलते हैं। कौन कह सकता है कि इन्होंने आपका मार्ग छोड़ दिया है। वे तो रोज महात्मा गांधी रोड पर चलते है।’ ऐसे हैं परसाई जी के व्यंग।

आज के दौर में भी प्रासंगिक परसाई जी (Harishankar Parsai) के व्यंग्य के कुछ अंश पढ़िए-

1- परसाई जी ने ‘ठिठुरता लोकतंत्र’ में लिखा,’स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है।

2- मध्य वर्ग का व्यक्ति एक अजीब जीव होता है। एक ओर इसमें उच्च वर्ग की आकांक्षा और दूसरी तरफ निम्नवर्ग की दीनता होती है। अहंकार और दीनता से मिलकर बना हुआ उसका व्यक्तित्व बड़ा विचित्र होता है। बड़े साहब के सामने दुम हिलाता है और चपरासी के सामने शेर बन जाता है।

3- हममें से अधिकांश ने अपनी लेखनी को रंडी बना दिया है, जो पैसे के लिए किसी के भी साथ सो जाती है। सत्ता इस लेखनी से बलात्कार कर लेती है और हम रिपोर्ट तक नहीं करते।

4- अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तब गोरक्षा आंदोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं।

5- सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिये चूहेदानियां रखी हैं। एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की। उसमें घुसने के छेद से बड़ा छेद पीछे से निकलने के लिये है। चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है।

6- अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये। जरूरत पड़ी तब फैलाकर बैठ गये, नहीं तो मोड़कर कोने से टिका दिया।

 

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