Gopal Krishna Gokhale Birth Anniversary: गोखले जिंदा होते, तो नहीं होता देश का बंटवारा…

ये भारत का हीरा, ये महाराष्ट्र का रत्न, ये श्रमिकों का राजकुमार अब अपनी अंतिम यात्रा पर है, चिर निद्रा में सो गया है। इनको देखिए और इनके जैसा बनने का प्रयास कीजिए।

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अंग्रेज हुकूमत भी मानती थी गोपाल कृष्ण गोखले का लोह।

Gopal Krishna Gokhale Birth Anniversary: भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और महान राजनीति विचारक गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में हुआ था। उनके जन्म से करीब 9 साल पहले 1857 की क्रांति हो चुकी थी। देश में हर तरफ स्वाधीनता आंदोलन का माहौल था। इनके पिता कृष्ण राव श्रीधर गोखले कोल्हापुर रियासत में एक सामंती रजवाड़े में काम किया करते थे। पिता एक साधारण क्लर्क थे लेकिन अपनी मेहनत और लगन के चलते तरक्की करते-करते वह रियासत के पुलिस इंस्पेक्टर बन गए थे। गोपाल कृष्ण गोखले कुल 6 भाई-बहन थे। बड़े भाई गोविंद के वो सबसे ज्यादा करीब थे। पिता की असामयिक मृत्यु ने गोपाल कृष्ण गोखले को बचपन में ही एक जिम्मेदार इंसान बना दिया। उस समय गोपाल कृष्ण गोखले की गिनती उन गिने चुने भारतीयों में होती थी, जो कॉलेज में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।

स्नातक की डिग्री प्राप्त कर गोखले गोविंद राणा डे द्वारा स्थापित डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी के मेंबर बन गए। बाद में महाराष्ट्र के सुकरात कहे जाने वाले गोविंद राणा डे के वो शिष्य भी बने। शिक्षा पूरी करने के बाद गोपाल कृष्ण ने कुछ दिन न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में नौकरी की और बाद में पूना के सुप्रसिद्ध फर्ग्यूशन कॉलेज में वो इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बन गए। लेकिन ये तो बस शुरूआत थी गोपाल कृष्ण गोखले के जीवन सफर की। आगे जाकर उनको भारत के राजनीतिक पटल पर एक सूरज की तरह चमकना था।

जब पिताजी की मृत्यु हुई उस समय गोपाल कृष्ण गोखले की आयु सिर्फ 13 साल की थी। बड़े भाई गोविंद 18 साल के थे। घरवालों का भार चाचा जी ने उठाया लेकिन उनकी भी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं थी। लिहाजा, बड़े भाई गोविंद ने अपनी पढ़ाई छोड़ कर नौकरी शुरू कर दी। 15 रूपए महीने वो कमाने लगा। लेकिन उस 15 रुपए में से भी बड़े भाई गोविंद 8 रूपए गोपाल कृष्ण गोखले को भेज दिया करते थे।

जब गोपाल कृष्ण तीसरी क्लास में थे तो एकबार होमवर्क में गणित के कुछ सवाल सॉल्व करने को दिए गए। सवाल बहुत ही कठिन थे। गोपाल देर रात तक उनसे जूझते रहे, लेकिन हल नहीं ढूंढ पाए। फिर बड़े भाई गोविंद से संपर्क किया, उनसे पूछा और गोविंद ने उन सवालों को हल कर दिया। जब अगले दिन क्लास में पहुंचे तो टीचर ने पूछा कि सवालों का सही हल कौन निकाल कर लाया है? ज्यादातर बच्चे असफल रहे थे। जब गोपाल कृष्ण ने अपनी नोटबुक टीचर को दी तो टीचर प्रसन्न हो गए। जैसे-जैसे टीचर प्रशंसा करते जाते गोपाल कृष्ण के आंखों से आंसू बहते जाते और वो फूट-फूट कर रोने लगे। सबने पूछा कि क्या बात है, तुमने तो सवालों का सही हल निकाला है? रो क्यों रहे हो? तब गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा कि मैंने ये सवाल अपने बड़े भाई से पूछ कर हल किया है। इसलिए इस प्रशंसा का मैं हकदार नहीं हूं। उनकी इस इमानदारी को देखकर टीचर ने डांटने की बजाय उन्हें गले से लगा लिया।

जब गोखले ने खुद के लिए तय की सजा…

गोपाल कृष्ण गोखले इस बात से बहुत अच्छी तरह परिचित थे कि उनके भाई किस तरह से खुद पढ़ाई-लिखाई छोड़कर नौकरी सिर्फ इसलिए कर रहे हैं ताकि गोपाल अच्छी तरह पढ़-लिख सकें। ऐसे हालात में वो बिल्कुल भी फिजूल खर्ची नहीं करते थे। एक दिन एक दोस्त ने कहा कि एक नाटक देखने चलते हैं। बालक गोपाल अपने मित्र के साथ देखने चले गए। नाटक देख लिया। बड़ा अच्छा था, मजा भी बहुत आया। खुश-खुश जब घर लौट रहे थे। तभी रास्ते में मित्र ने कहा कि भाई नाटक का टिकट दो आने का टिकट था। दो आने मुझे दे दो। अब बालक गोपाल स्वाभिमानी थे। दो आने दे दिए अपने मित्र को। लेकिन मन उनका बुरी तरह से टूट गया कि कैसे भाई-भाभी एक-एक पैसा जोड़कर उन्हें पढ़ा रहे हैं और वह यहां दो आने का नाटक देख आए। अगर मालूम होता कि टिकट लगेगा तो नाटक देखने जाते ही नहीं। उन्होंने तय किया कि इस फिजूल खर्जी का दंड भी वही भोगेंगे। लिहाजा, अपने किरोसिन लैंप के लिए उन्होंने कई दिनों तक तेल नहीं खरीदा। जब तक उस दो आने का दंड पूरा नहीं हो गया तब तक वह स्ट्रीट लाइट्स के नीचे बठ कर पढ़ते रहे।

महात्मा गांधी धुलते थे इनके कपड़े

गोखले को कभी कोई स्कॉलरशिप नहीं मिली और ना ही परीक्षा में कभी वो सर्वोच्च अंक लेकर अव्वल आए। लेकिन घरवालों ने उनकी पढ़ाई हमेशा जारी रखी। पढ़ाई में रूकावट नहीं आए इसके लिए उनकी भाभी ने अपने सारे गहने तक बेच दिए। अब उन्हें इस बात का मलाल होने लगा कि उनकी पढ़ाई के लिए भाभी ने अपने गहने तक बेच दिए, फिर भी पढ़ाई में उनके मार्क्स कम आते हैं। ये बात उन्हें सालों तक कचोटती रही। उनकी पढ़ाई खुद के मार्क्स कम आते हैं इसलिए भाभी को गहने तक बेचने पड़े, ये सोच गोखले को अंदर ही अंदर बहुत सालों तक सालती रही। फिर वो नए सिरे से मेहनत से पढ़ाई में जुट गए। 20 साल की उम्र में उन्होंने बीए पास कर लिया। इसके बाद उन्हें विदेश शिक्षा के ऑफर्स थे लेकिन उन्होंने एक स्थानीय हाईस्कूल में 35 रूपए की नौकरी ज्वॉइन कर ली। गोपाल कृष्ण गोखले स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही, मंझे हुए राजनीतिज्ञ भी थे। महात्मा गांधी खुद कहते थे ‘वो मेरे राजनीतिक गुरु हैं। राजनीति की ए बी सी डी… मैंने गोपाल कृष्ण गोखले जी से सीखी है।’

उन्हीं की प्रेरणा से गांधीजी ने दक्षिण अफ्रिका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन भी चलाया था। 1912 में गोखले खुद भी दक्षिण अफ्रीका गए थे और वहां उन्होंने रंगभेद की निंदा की थी। उसके खिलाफ जो आंदोलन चल रहा था उसे अपना समर्थन दिया था। इस यात्रा के दौरान गोखले जी का जब भी, जहां भी भाषण होता वो मराठी में बोलते, उसका अनुवाद हिंदी में गांधीजी किया करते थे। इस पूरी यात्रा के दौरान गांधीजी ने बिल्कुल एक सेवक की तरह पूरी निष्ठा से गोखले जी की सेवा की थी। गांधी जी उनके कपड़े धोते थे, अपने हाथों से उनका भोजन बनाते थे और उन्हें खिलाते थे। सोचिए, कैसा जादू होगा गोखले जी की शख्सियत में कि गांधी जी जैसा महापुरुष उनकी सेवा कर खुद को कृतार्थ मानता था।

फिरंगी भी मानते थे गोखले का लोहा

इंग्लैंड में और अंग्रेजों के बीच गोखले जी का कुछ ऐसा दबदबा था, उनका कुछ ऐसा सम्मान था कि इस पूरी अफ्रिकी यात्रा का सारा इंतजाम ब्रिटिश हुकूमत ने किया था। जिस स्टीमर में बैठ कर उन्हें भारत से अफ्रीका जाना था, उसमें उनके लिए फर्स्ट क्लास केबिन का इंतजाम भी ब्रिटिश हुकूमत ने किया। इतना ही नहीं, कोई अंग्रेज गलती से उनके साथ कोई अभद्र व्यवहार न कर बैठे, इसलिए ब्रिटिश सरकार ने एक सीनियर ऑफिसर को भी उनके साथ तैनात किया हुआ था। साथ ही साउथ अफ्रीका की सरकार ने भी गोखले को राजकीय मेहमान घोषित किया था। ये थी अपने विचारों की वजह से गोखले जी की ख्याति। गोखले जी जब अफ्रीका पहुंचे, तो ऐसा मालूम होता था जैसे उस वक्त का कोई सिकंदर आ गया हो भारत की धरती से।

ऐसे शुरू हुआ सार्वजनिक जीवन

1885 की बात है, कोल्हापुर में एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने पहली बार भाषण दिया। अब उस समारोह की अध्यक्षता कोल्हापुर के रेसिडेंट अंग्रेज अधिकारी विलियम वार्नर कर रहे थे। सभा का विषय था अंग्रेजी शासन के अधीन भारत। गोखले जी ने जब बोलना शुरू किया तो उनकी सटीक जानकारी और अंग्रेजी भाषा पर जो उनकी पकड़ थी, उससे सभी सुनने वाले जैसे मंत्र मुग्ध हो गए। वार्नर को गोखले जी ने कहा ‘मैं जितना अच्छा वक्ता हूं, उतना अच्छा टीचर नहीं हूं।’ ध्यान रहे, उनका पेशा तो शिक्षक का था। उन्होंने कहा कि बच्चों को जब मैं कविताएं पढ़ाता हूं तो वो उस तरह से समझ नहीं पाते जैसी मैं उन्हें समझाना चाहता हूं।

गोखले जी की दिक्कत भी अजीबो-गरीब थी। उनकी यादाश्त इतनी जबरदस्त थी कि बच्चों को पढ़ाते हुए उनको नोटबुक्स या कॉपी किताब देखने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। तो वे जब कविताएं पढ़ाते थे तो बच्चे उसका भाव तो समझ जाते थे। लेकिन गोखले जी ये चाहते थे कि बच्चे भी कवि के मन में उतरें, कविता की गहराई में डूबें, गोते लगाएं उस सागर में। अब वो कहां बच्चों के वश की बात। उस विफलता को गोखले जी स्वयं ओढ़ना चाहते थे कि मैं अच्छा शिक्षक नहीं हूं।

गोखले होते तो नहीं होता देश का बंटवारा

अब बात करते हैं, जिन्ना साहब की। लोगों का मानना है कि अगर गोखले जी आजादी के समय जिंदा होते तो जिन्ना साहब की शायद हिम्मत ही नहीं होती भारत पाकिस्तान के विभाजन की बात उठाने की। इतना आदर करते थे जिन्ना साहब गोखले जी का। जिन्ना के बारे में गोखले जी का कहना था कि जिन्ना के अंदर एक सच्चाई है और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर चलने की हिम्मत है। गोखले जी की नजर में जिन्ना हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रवक्ता बन सकते थे। लेकिन, जब विभाजन हो रहा था, जब मुस्लिम लीग बनी, जिन्ना उसके नेता बने, पाकिस्तान की मांग रखी, दुर्भाग्यवश गोखले जी दुनिया में उस वक्त नहीं थे।

गांधी और जिन्ना के राजनीतिक गुरु

जिन्ना हमेशा कहा करते थे कि सार्वजनिक जीवन और राजनीति में उनकी सिर्फ एक ही इच्छा है, उस मुकाम पर पहुंचना जहां गोपाल कृष्ण गोखले थे। 1912 में गोखले जी कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान शिक्षा पर एक प्रस्ताव लाए थे। जिसका सबसे अधिक खुलकर समर्थन मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था। 1913 में, गोपाल कृष्ण गोखले और मोहम्मद अली जिन्ना 8 महीने तक इकट्ठे यूरोप की यात्रा पर थे। इस दौरान उन्होंने एक-दूसरे के विचारों को अच्छी तरह समझा और जाना। लिहाजा, जिन्ना साहब ने पूरे मन से उनको अपना गुरू स्वीकार कर लिया।

बापू ने पूरा किया गोखले का सपना

गोखले जी ने बचपन में जो कुर्बानियां दी थीं, जो कठिनाइयां झेली थीं, उनका परिश्रम, उनके महान विचार, उनकी सादगी, जो आखिरी समय तक उनके साथ रहीं। ये देश का दुर्भाग्य रहा कि वो कम आयु में ही चल बसे। 19 फरवरी, 1915 को सिर्फ 49 वर्ष की आयु में गोपाल कृष्ण गोखले जी का निधन हो गया। उनकी मृत्यु पर बाल गंगाधर तिलक ने कहा था, ‘ये भारत का हीरा, ये महाराष्ट्र का रत्न, ये श्रमिकों का राजकुमार अब अपनी अंतिम यात्रा पर है, चिर निद्रा में सो गया है। इनको देखिए और इनके जैसा बनने का प्रयास कीजिए।’ गोखले जी के बाद राष्ट्र को नेतृत्व देने की बारी थी महात्मा गांधी की। गोखले जी ने जो सपने देखे थे, उन्हें महात्मा गांधी ने पूरे किए।

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