जंग-ए-आजादी के हीरो ने ही काकोरी कांड से अंग्रेजों की नींद उड़ाई थी

Ashfaqulla Khan

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,

आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।

हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,

तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।

Ashfaqulla Khan

अशफ़ाक़ उल्ला खॉं भारत माता के ऐसे वीर सपूत थे जो देश की आजादी के लिये हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। अशफ़ाक़ उल्ला खॉं का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में हुआ था। उनका पूरा नाम अशफाक़ उल्ला खान वारसी ‘हसरत’ था। बचपन से ही इनके मन में देश के प्रति अनुराग था। देश की भलाई के लिये चल रहे आंदोलनों की कक्षा में वे बहुत रूचि से पढ़ाई करते थे। धीरे धीरे उनमें क्रांतिकारी के भाव पैदा हुए। वे हर समय इस प्रयास में रहते थे कि किसी ऐसे व्यक्ति से भेंट हो जाए जो क्रांतिकारी दल का सदस्य हो। वे राम प्रसाद बिस्मिल से काफी प्रभावित थे, इसलिए जब मैनपुरी केस के दौरान उन्हें यह पता चला कि राम प्रसाद बिस्मिल उन्हीं के शहर के हैं तो वे उनसे मिलने की कोशिश करने लगे। धीरे धीरे वे राम प्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आए और बाद में उनके दल के भरोसेमंद साथी बन गए। इस तरह से वे क्रांतिकारी जीवन में आए।

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महात्मा गांधी का प्रभाव अशफाक उल्ला खाँ (Ashfaqulla Khan) के जीवन पर प्रारम्भ से ही था, लेकिन जब चौरी चौरा घटना के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो उनके मन को अत्यंत पीड़ा पहुंची।  रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में क्रांतिकारियों की एक अहम बैठक हुई, जिसमें हथियारों के लिए ट्रेन में ले जाए जाने वाले सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई।

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क्रांतिकारी जिस धन को लूटना चाहते थे, दरअसल यह धन अंग्रेज़ों ने भारतीयों से ही हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफ़ाक़ उल्ला खाँ, रामाप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, अकुर रोशन सिंह, सचिन्द्र बसशी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्द लाल और मन्मथ लाल गुप्त ने अपनी योजना को अंजाम देते हुए लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन द्वारा ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। भारतीय इतिहास में यह घटना काकोरी कांड के नाम से जानी जाती है। इस घटना को आज़ादी के इन मतवालों ने अपने नाम बदलकर अंजाम दिया था।

अशफाक उल्ला खाँ (Ashfaqulla Khan) ने अपना नाम कुमारजी रखा। इस घटना के बाद ब्रिटिश हुकुमत पागल हो उठी और उसने बहुत से निर्दोषों को पकड़कर जेलों में डूंस दिया। अपनों की दगाबाजी से इस घटना में शामिल एक-एक कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफाक उल्ला खां पुलिस के हाथ नहीं आए।

इस घटना के बाद अशफाक उल्ला खाँ (Ashfaqulla Khan) शाहजहाँपुर छोड़कर बनारस आ गए और वहाँ दस महीने तक एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया। इसके बाद उन्होंने इंजीनियरिंग के लिए विदेश जाने की योजना बनाई ताकि वहाँ से कमाए गए पैसों से अपने क्रांतिकारी साथियों की मदद करते रहें। विदेश जाने के लिए यह दिल्ली में अपने एक पठान मित्र के संपर्क में आए, लेकिन उनका वह दोस्त विश्वासघाती निकला। उसने इनाम के लालच में आकर पुलिस को सूचना दे दी और इस तरह अशफ़ाक़ उल्ला यो पकड़ लिए गए।

Ashfaqulla Khan | Nayak With Sanjeev Srivastav

जेल में अशफाक को कई तरह की यातनाएँ दी गई। जब उन पर उन यातनाओं का कोई असर नहीं हुआ तो अंग्रेजों ने तरह-तरह की चालें चलकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की, लेकिन अंग्रेज़ अपने इरादों में किसी भी तरह कामयाब नहीं हो सके। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो भी उस पर मुस्लिमों का नहीं हिन्दुओं का राज होगा और मुस्लिमों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफाक उल्ला खाँ (Ashfaqulla Khan) ने अंग्रेज़ अफसर से बहा कि- फूट डालकर शासन करने की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आज़ाद होकर रहेगा। उन्होंने अंग्रेज़ अधिकारी से कहा- ‘तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को अब बिलकुल नहीं दबा सकते। अपने दोस्तों के खिलाफ़ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूंगा।

जब काकोरी कांड हुआ और उन पर मामला चला तो वे पुलिस से आँख बचाकर भाग निकले। लोगों ने उनसे रूस चले जाने को कहा तो वे टाल जाते और कहते – मैं सजा के डर से फरार नहीं हो सकता, मैं गिरफ्तार नहीं होना चाहता क्योंकि देश के लिये मुझे अभी बहुत काम करना है। वे लगातार संगठन के लिये काम करते रहे। आखिर 08 सितम्बर 1926 में दिल्ली में उन्हें पकड़ लिया गया। उन्हें लखनऊ लाया गया और फांसी की सजा दी गयी। उनका व्यवहार बड़ा मस्ताना था। उनको राम प्रसाद बिस्मिल का लेफ्टिनेंट कहा जाता था। जब उनको फांसी की सजा मुक़र्रर की गयी तो उन्हें ज़रा भी दुःख नहीं था। जब 19 दिसम्बर, 1927 वह फांसी पर चढ़ रहे थे तो उन्होंने उपस्थित लोगों से कहा – “मेरे हाथ इंसान के खून से कभी नहीं रंगे, मेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गया वह गलत है, खुदा के यहां मेरा इन्साफ होगा” इसके बाद उनके गले में फंदा पड़ा और वे खुदा को याद करते हुए दुनिया से कूच कर गए। उनकी अंतिम यात्रा को देखने के लिये लखनऊ की जनता सड़कों पर उमड़ पड़ी। बुजुर्ग इस तरह से रो रहे थे मानो उन्होंने अपना ही पुत्र खोया हो। उनकी इस शहादत ने देश की आजादी की लड़ाई में हिन्दू मुस्लिम एकता को और भी अधिक मजबूत कर दिया। आज भी उनका दिया गया बलिदान देशवासियों को एकता के सूत्र में पिरोने का काम करता है। अमर शहीद अशफाक उल्ला खॉं देश की आजादी के लिये अपना सर्वस्व बलिदान कर पुण्य वेदी पर चढ़ गए. ऐसे वीर शहीद को कोटि कोटि नमन।

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