नक्सलियों के खिलाफ जारी है देशभर में अभियान, जानें कैसे रहे हैं राज्यों के हालात

छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh)  के बीजापुर में 3 अप्रैल को हुए नक्सली हमले (Naxal Attack) में 22 जवान शहीद हो गए। इस हमले ने पूरे देश को दहला कर रख दिया है।

Naxalism

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नक्सलवाद (Naxalism) के गढ़ पश्चिम बंगाल में भी राज्य पुलिस ने मजबूत खुफिया तंत्र की मदद से इस समस्या को जड़ से उखाड़ फेंका।

छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के बीजापुर में 3 अप्रैल को हुए नक्सली हमले (Naxal Attack) में 22 जवान शहीद हो गए। इस हमले ने पूरे देश को दहला कर रख दिया है। नक्सलियों के इतने बड़े हमले के बाद यह सवाल उठने लगे कि हमारी रणनीति में कहां चूक हुई? छत्तीसगढ़ दशकों से लगातार लाल आतंक (Naxalism) से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रदेश में नक्सलियों (Naxalites) के कुछ ही आखिरी गढ़ बचे हैं जहां से उनके सफाए के लिए लड़ाई जारी है। साल 2010 में चिंतलनार नक्सली हमले में 76 जवानों की शहादत के बाद से लेकर अब तक दंतेवाड़ा-सुकमा-बीजापुर में हुए नक्सली हमलों में 175 से अधिक जवान शहीद हुए हैं। साल 2005 से वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित राज्यों में नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हुई थी। इसके बाद से अधिकतर राज्यों ने काफी हद तक इस समस्या पर काबू पा लिया है। साल 2000 की शुरुआत में करीब 200 से अधिक जिले नक्सल प्रभावित थे, जिनकी संख्या अब घटकर 90 रह गई है। हालांकि, छत्तीसगढ़ अब भी इस समस्या से निजात पाने के लिए संघर्ष कर रहा है।

राज्य पुलिस की अहम भूमिका

जानकारों का मानना है कि उन्हीं राज्यों में नक्सलियों पर काबू पाया जा सका है जहां कमान राज्य पुलिस के हाथों में रही है। देश में माओवाद की नर्सरी कहे जाने वाले आंध्र प्रदेश से नक्सलवाद (Naxalism) के खात्मे का श्रेय राज्य पुलिस के ग्रेहाउंड्स फोर्स को जाता है। वहीं, महाराष्ट्र, जहां के कई जिलों में नक्सलियों का वर्चस्व था, आज वे स्थानीय पुलिस और C60 फोर्स की कार्रवाईयों की वजह से गढ़चिरौली के सीमावर्ती इलाकों तक ही सिमट कर रह गए हैं।

पश्चिम बंगाल में भी राज्य पुलिस की कारगर रणनीतियों की वजह से ही नक्सलवाद पर काबू पाया जा सका है। इसके अलावा झारखंड पुलिस की ‘जगुआर’ फोर्स के अभियानों के चलते बीते कुछ सालों में नक्सलियों पर लगाम लगी है। ओडिशा के कोरापुट में स्थानीय प्रशासन की कोशिशों की बदौलत नक्सली गतिविधियों पर काबू पाया जा सका है और नक्सली अब केवल मालकानगिरी तक ही सीमित रह गए हैं।

गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के अनुसार, “केंद्रीय सुरक्षा बलों के पास संख्या बल और प्रशिक्षण तो है, लेकिन उनके पास स्थानीय इलाकों की अधिक जानकारी नहीं है। केवल स्थानीय पुलिस ही नक्सलियों को उखाड़ कर फेंक सकती है। छत्तीसगढ़ में हम सफल नहीं हो रहे हैं, क्योंकि स्थानीय पुलिस ने अभी तक नेतृत्व नहीं संभाला है, हालांकि वहां हालात सुधर गए हैं।”

आंध्र प्रदेश/तेलंगाना के पूर्व पुलिस अधिकारी के दुर्गा प्रसाद का कहना है, “जब भी यह जिम्मेदारी बाहर के सिक्योरिटी फोर्सेज को दी गई है, चाहे वे कितना ही प्रशिक्षित और सक्षम क्यों न हो, कभी भी मनचाहे परिणाम नहीं मिलते हैं। क्योंकि जब आप इसे खुद की जिम्मेदारी मान कर करते हैं, तो इसके प्रति आपकी प्रतिबद्धता अधिक होती है और आप परिस्थियों को बेहतर तरीके से समझते हैं और उनसे तेजी से सीखते हैं। ऐसी स्थिति में आप निर्णय भी तेजी से लेते हैं।” बता दें कि के दुर्गा प्रसाद ने 2000 के दशक में ग्रेहाउंड्स फोर्स में काम किया है और उन्होंने सीआरपीएफ के प्रमुख के रूप में भी जिम्मेदारी संभाली है।

दरअसल, भारत सरकार ने साल 2004 में माओवादी हिंसा की गंभीरता को समझ लिया था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे ‘देश के लिए सबसे बड़ा आंतरिक सुरक्षा खतरा’ बताया था। इसके बाद से केंद्र सरकारों ने इस समस्या का सामना करने के लिए राज्य पुलिस बलों के आधुनिकीकरण को लेकर कई जरूरी कदम उठाए।

आंध्र प्रदेश

साल 1980 के दशक में जब आंध्र प्रदेश में नक्सल हिंसा की शुरूआत हुई थी, तब राज्य पुलिस की स्थिति कमजोर थी। आंध्र पुलिस के पास न तो पर्याप्त संसाधन थे और न ही इसका खुफिया तंत्र इतना मजबूत था। करीमनगर में तैनात रहे और कई अभियानों का नेतृत्व कर चुके एक अधिकारी की मानें तो करीमनगर में खुफिया तंत्र खड़ा के लिए एसपी कार्यालय की बाउंड्री करवाने के लिए मिले फंड के पैसे लिए गए थे। अधिकारी के मुताबिक, “तब जिला पुलिस के पास सीक्रेट सर्विस के लिए महज 5,000 रुपए का फंड होता था। इसलिए हमने अपने मुखबिरों को देने के लिए उन 2.5 लाख रुपयों का इस्तेमाल किया था जो कि एसपी ऑफिस के चारों ओर दीवार बनवाने के लिए मिले थे। ट्रेडर्स के साथ अच्छे रिश्तों की वजह से सीमेंट और ईंट की व्यवस्था हो गई थी, जिसकी मदद से हमने वह दीवार फ्री में बनवाई थी।”

आंदोलन की शुरुआत में केवल जमींदार ही नक्सलियों के निशाने पर थे। इसलिए राज्य ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन बाद में जब पुलिस नक्सली वारदातों को काबू करने में सफल नहीं हो सकी तब राज्य सरकार को एहसास हुआ कि पुलिस की क्षमता बढ़ाने की दरकार है। अधिकारी के अनुसार, “इसके बाद से डिफेंड, डिस्ट्रॉय, डिफीट और डिनाय के सिद्धांत पर काम शुरू हुआ।” हमने महसूस किया कि पुलिस स्टेशनों में संसाधनों की कमी थी, इसलिए नक्सली अक्सर पुलिस को निशाना बनाते थे। ऐसे में कई बार पुलिस को खुद की जान बचाने के लिए मजबूर होना पड़ता था।” साल 1989 में ग्रेहाउंड फोर्स का गठन किया गया। इस बल ने खुफिया तंत्र की मदद से नक्सलियों के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाया। वहीं, पुलिस और अर्द्धसैनिक बल के जवानों को इन इलाकों में कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दी गई।

दरअसल, इस समस्या का समाधान विकास के साथ ही हो सकता था। इसके लिए दूर-दराज के इलाकों के विकास के लिए Remote and Interior Area Development Department नाम से एक विभाग बनाया गया था। दुर्गा प्रसाद कहते हैं, “इन इलाकों के एसपी को विकास बोर्ड का सदस्य बनाया गया जो सड़कों के निर्माण आदि से संबंधित निर्णय ले सके। जब पूरा प्रशासनिक विंग एक ही काम पर केंद्रित हो जाता है, तो सरकार का पक्ष मजबूत हो जाता है।”

यह राज्य पुलिस और ग्रेहाउंड के बीच का तालमेल ही था जिससे इस मकसद में कामयाबी मिल सकी। दुर्गा प्रसाद बताते हैं, “हर IPS अधिकारी जो उस समय राज्य पुलिस में शामिल होता था, उसे ग्रेहाउंड के साथ तीन महीने बिताने पड़ते थे। यह आज भी होता है। आंध्र पुलिस ने पॉवर स्थानीय पुलिस सेट-अप के लोकल लीडर्स को दे दी थी। सेंट्रलाइज होने से समय बर्बाद होता है और फिर लड़ाई हार जाते हैं।”

आंध्र प्रदेश में 23 में से 21 जिले नक्सलवाद से प्रभावित थे। 90 के दशक में यहां नक्सली हिंसा चरम पर पहुंच गई थी। साल 1990 में नक्सली हिंसा में 145 मौतें हुई थी, 1991 में 227 मौतें, साल 1992 में 212 और साल 1993 में 143 जानें गईं थीं। लेकिन साल 1999 आते-आते नक्सलियों पर इतना दबाव बनाया गया कि माओवादी कैडर छत्तीसगढ़ और ओडिशा के सीमावर्ती इलाकों की ओर भाग कर पनाह लेने लगा। साल 2003 और 2011 के बीच आंध्र पुलिस ने 800 नक्सलियों और 50 शीर्ष नेताओं का सफाया किया था। साल 2008 से 2020 के बीच आंध्र और तेलंगाना में माओवादी हिंसा में केवल आठ सुरक्षाकर्मियों की जान गई थी। वहीं, इस दौरान लगभग 100 नक्सली मारे गए थे।

पश्चिम बंगाल

नक्सलवाद के गढ़ पश्चिम बंगाल में भी राज्य पुलिस ने मजबूत खुफिया तंत्र की मदद से इस समस्या को जड़ से उखाड़ फेंका। पश्चिम बंगाल कैडर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जो नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा रह चुके हैं और फिलहाल केंद्रीय डेप्युटेशन पर हैं, बताते हैं, “पश्चिम बंगाल पुलिस ने बड़े पैमाने पर फोन इंटरसेप्शन का इस्तेमाल किया। गांवों में सीपीएम का नेटवर्क काफी मजबूत था, जिससे पुलिस को मदद मिली। 2000 के दशक के आखिर तक भाकपा (माओवादी) के लगभग हर दलम को पुलिस ने हैक कर लिया था।

लेकिन, साल 2010 में नक्सल हिंसा ने यहां दोबारा दस्तक दी। 15 फरवरी, 2010 के नक्सलियों ने झारग्राम जिले के सिल्दा स्थित सुरक्षाबलों के कैंप पर बड़ा हमला किया। इस हमले में 25 पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे। इसके बाद पुलिस ने एक विशेष बल स्ट्रैको का गठन किया। इस बल में महिला पुलिस कैडर को भी शमिल किया गया, जो बेहतर खुफिया जानकारी जुटाने में माहिर थीं। ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद नक्सलवाद पर सबसे बड़ा प्रहार हुआ।

साल 2011 में राज्य पुलिस ने बड़े नक्सली नेता किशनजी को मार गिराया। तब से पश्चिम बंगाल में नक्सली हिंसा और सुरक्षाकर्मियों की मौत में लगातार कमी आई है। जहां, राज्य में साल 2009 में नक्सली हिंसा में हुई नागरिकों और सुरक्षाबलों की मौतों का आंकड़ा 159 और साल 2010 में 252 था, वहीं साल 2014 से यहां नक्सली हिंसा की एक भी वारदात नहीं हुई है। के दुर्गा प्रसाद के अनुसार, “पश्चिम बंगाल में राज्य पुलिस ही थी जिसने खुफिया तंत्र का नेतृत्व किया और खुफिया जानकारी हासिल कर विभिन्न नक्सली समूहों में घुसपैठ की। फिर, नक्सलवाद पर आखिरी प्रहार के समय जब केंद्रीय बलों की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने सीआरपीएफ (CRPF) की कोबरा (CoBRA) बटालियन की मदद ली।”

ओडिशा और महाराष्ट्र

ओडिशा में 2000 के दशक की शुरुआत में वह समय था जब नक्सलियों द्वारा लूटे जाने के डर से कोरापुट और मलकानगिरि के पुलिस स्टेशनों में हथियार नहीं रखे जाते थे। लेकिन तेजी से हो रहे इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास खासकर कोरापुट में सड़कों के विकास की बदौलत आज नक्सलवाद पर लगाम लग सका है। साथ ही ओडिशा पुलिस द्वारा नारायणपुर जैसे इलाकों में बड़े नक्सली नेताओं को मार गिराने के बाद अब नक्सली कोरापुट और मलकानगिरी के कुछ हिस्सों में ही सिमट कर रह गए हैं। नक्सलियों से लड़ने के लिए पुलिस ने स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (SOG) नाम की एक फोर्स का गठन किया है।

हालांकि, छत्तीसगढ़ की सीमा से सटे होने के कारण अभी कुछ समस्या बाकी रह गई है। वहीं, महाराष्ट्र में केंद्रीय सुरक्षाबलों की तैनाती से काफी पहले से ही राज्य पुलिस गढ़चिरौली, गोंदिया और चंद्रपुर जैसे धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों से लड़ रही थी। इसके लिए राज्य पुलिस ने एक खास फोर्स C60 बनाई। C60 का गठन साल 1991 में किया गया था। इस फोर्स को मिजोरम के जंगल वॉरफेयर एकेडमी में राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (NSG) कमांडोज ट्रेनिंग देते हैं।

पुलिस की ताबडतोड़ कार्रवाईयों से गोंदिया और चंद्रपुर से नक्सलियों का सफाया हो गया। यहां नक्सलियों का मूवमेंट अब केवल छत्तीसगढ़ के सीमाई इलाके गढ़चिरौली तक ही सीमित होकर रह गया है। महाराष्ट्र में साल 2009 में माओवादी हिंसा चरम पर थी। इस साल यहां नक्सली हिंसा में 52 सुरक्षाकर्मियों और 40 आम नागरिकों की मौत हो गई थी। वहीं, अब यहां मौत के आंकड़े इकाई में सिमट गए हैं।

पूर्व IPS अधिकारी के पी रघुवंशी, जिन्होंने C60 की स्थापना की थी, कहते हैं, “हमें नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में एक मजबूत पुलिस फोर्स की जरूरत महसूस हुई। इसलिए हमने C60 बनाया है। हमने महसूस किया कि नक्सली यह स्थानीय इलाकों में स्थानीय भाषा में अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करते हैं। इसे केवल स्थानीय लोगों द्वारा ही काउंटर किया जा सकता है। हमने न केवल सफल अभियान चलाए, बल्कि नक्सलियों के प्रोपगैंडा के खिलाफ काउंटर-प्रचार भी किया।”

बिहार और झारखंड

इन दोनों राज्यों के कुछ जिलों में ही नक्सलवाद की समस्या है। यहां हिंसा की घटनाएं अब काफी कम हो रही हैं। झारखंड पुलिस की जगुआर फोर्स ने केंद्रीय सुरक्षा बलों के साथ अच्छा समन्वय स्थापित किया है जिसकी वजह से यहां माओवादी नेता अरविंदजी और उसके कैडरों की गतिविधियों पर लगाम लगाई जा सकी है। हालांकि, लातेहार जैसे जिलों में बीते कुछ सालों में नक्सली हमले हुए हैं, इसलिए यहां अभी एक आखिरी प्रहार किया जाना बाकी है। सूत्रों के अनुसार, नक्सलवाद से निपटने के लिए बिहार में भी एक विशेष कार्य बल बनाया जा रहा है, लेकिन अभी यह शुरुआती चरण में है।

छत्तीसगढ़ की चुनौती

साल 2000 के दशक की शुरुआत में नक्सलियों के आंध्र प्रदेश से भागकर आने के बाद छत्तीसगढ़ में परेशानी शुरू हुई। यह वो समय था जब नक्सली आंदोलन, जमींदारों के खिलाफ संघर्ष से राज्य के खिलाफ आदिवासियों के आंदोलन में तब्दील होने लगा। यह भी एक अलग तरह की चुनौती थी क्योंकि माओवादियों ने उन क्षेत्रों में अपना गढ़ बना लिया था, जो प्रशासन की पहुंच से काफी दूर थे। साल 2018 और 2020 के बीच देश भर में हुई हिंसा की कुल घटनाओं का 45% वारदातें अकेले छत्तीसगढ़ में हुई हैं और इन वारदातों में 70% सुरक्षाकर्मियों की जान गई है।

गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, ” यहां न तो सड़के हैं, न ही स्कूल हैं, न कोई अस्पताल है और नहीं कोई पुलिस स्टेशन है। जो हैं, वो CRPF कैंपों में हैं। इसतरह के सेटअप में खुफिया जानकारी देने के लिए कोई भी तैयार नहीं होगा। जब तक पुलिस स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू नहीं करती, तब तक बदलाव गति की धीमी ही रहेगी।”

वहीं, के दुर्गा प्रसाद कहते हैं, “छत्तीसगढ़ एक अलग चुनौती है। यहां की परिस्थितियां आंध्र प्रदेश से काफी अलग हैं। यहां के नक्सलियों के प्रति जनता की अधिक सहानुभूति है। सलवा जुडूम के बाद तो सूचना तंत्र बिल्कुल ही खत्म हो गया। इसके अलावा, छत्तीसगढ़ में अधिक ताकतवर है।”

छत्तीसगढ़ पुलिस ने भी नक्सलियों के खिलाफ लड़ने के लिए एक स्पेशल फोर्स खड़ा किया है, जिसे जिला रिजर्व गार्ड (DRG) कहा जाता है। हालांकि, यह आंध्र प्रदेश की ग्रेहाउंड फोर्स की तुलना में नया है। इसमें बस्तर के आदिवासी रंगरूट हैं और आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को भी इसमें शामिल किया गया है।

गृह मंत्रालय के अधिकारी के अनुसार, “इससे स्थानीय खुफिया जानकारी इकट्ठी करने में बेहतर मदद मिलती है। उन्हें अच्छी तरह से प्रशिक्षित भी किया जाता है। लेकिन, इनके पास ग्रेहाउंड्स के जैसी लड़ाकू क्षमताओं की कमी है।”

के दुर्गा प्रसाद का मानना है कि सुरक्षाबलों को स्वतंत्रता देना महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, “विशेष बलों का गठन करना एक बात है और उन्हें संचालत की स्वतंत्रता देना दूसरी बात है। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो कोई भी प्रशिक्षण कारगर साबित नहीं हो सकेगा।”

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