नौशाद अली पुण्यतिथि: भारतीय शास्त्रीय संगीत को नये मुकाम तक पहुंचाने वाले महान संगीतकार

नौशाद (Naushad Ali) की संगीतकार के रूप में इस दौर की सफलता इतनी थी कि 1949 में ही उन्हें एक फिल्म के लिए एक लाख रुपए मिलने लगे थे गुलाम हैदर जैसे कई संगीतकारों के पाकिस्तान चले जाने का फायदा भी नौशाद और सी. रामचंद्र जैसे संगीतकारों को मिला ही

Naushad Ali

एक ज़माना था जब फिल्म ‘दास्तान’ के ट्रेलर में ऊँचे स्वरों में यह उद्घोषणा सुनाई देती थी- ‘चालीस करोड़ में एक ही नौशाद’। किसी संगीतकार को इतनी प्रतिष्ठा फिल्म जगत में उस वक्त तक कभी नहीं मिली थी। नौशाद (Naushad Ali) पहले संगीतकार थे जिन्होंने अपनी शख्सियत और अपने हुनर से संगीतकार का दर्जा भी नायक या निर्देशक के समकक्ष ला खड़ा किया। नौशाद  ऐसे संगीतकार रहे हैं जिन्होंने फिल्मों में भी अपनी रचनाएँ भारतीय संगीत-पद्धति के अंदर ही विकसित की, और राग आधारित स्वरक्रम के साथ कभी तो विशुद्ध शास्त्रीय अंदाज़ की बंदिशें सृजित की, तो कभी शास्त्रीय संगीत के आधार में लोकगीत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए बहुत ही सरस और मीठे गीत बनाए। शास्त्रीय संगीत का नौशाद (Naushad Ali) जितना सुगम रूप कम ही संगीतकारों में दिखाई देता है। पचास साल से अधिक सक्रिय रहनेवाले नौशाद (Naushad Ali) ने अपने अंतिम दौर तक भी शास्त्रीय संगीत के इस आधार को बदलते ज़माने के बावजूद काफ़ी हद तक पकड़कर रखा, यह अपने-आप में उनकी विशिष्टता को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है।

नौशाद (Naushad Ali) का जन्म लखनऊ के कांधारी बाज़ार इलाके में 26 दिसम्बर, 1919 में हुआ था तीन साल की उम्र में ही एक बार नौशाद (Naushad Ali) ऐसे बीमार पड़े कि साँस रुक गई और घर-परिवार में मौत का सन्नाटा छा गया, पर कमाल देखिए कि बालक नौशाद की साँस वापस आ गई और मातम-भरे चेहरों पर खुशी के फूल खिल उठे। अपने संगीत से दुःख को राहत में बदलने का काम नौशाद आगामी वर्षों में बार-बार करेंगे, यह उस वक्त किसको पता था!

नौशाद (Naushad Ali) को बचपन से ही संगीत के प्रति गहरी रुचि थी। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बचपन की उस घटना का बड़ा रोचक वर्णन किया है जब बाराबंकी के पास देवा शरीफ के उर्स में उन्होंने पेड़ के नीचे बैठे एक बाबा रशीद खाँ को ‘छूटे असीर वो बदला हुआ ज़माना था’ गाते सुना था, और गाने तथा बाँसुरी के सुरों से वे बहुत प्रभावित हुए थे जब उनके वालिद अपने नए मकान घसियारी मंडी में परिवार को ले गए तो वहीं पास में एक साज़ की दुकान हुआ करती थी- ‘एस. भोंपू एंड सन्स’।

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जब भी नौशाद (Naushad Ali) इस दुकान के पास से गुज़रते तो ठिठककर घंटों साजों को निहारते रहते थे एक बार दुकान मालिक गुरबत अली ने फटकार दिया कि क्या रोज़-रोज़ का तमाशा लगा रखा है! नौशाद की विनती पर कि वे घंटे-दो घंटे दुकान में बैठने की इजाजत दे दें, बदले में नौशाद कोई भी खिदमत कर देंगे, गुरबत अली मान गए। नौशाद बड़े लगन से दुकान की सफाई करते, साजों को झाड़ते-पोंछते, उस्ताद गुरबत अली का हुक्का भी भर देते उस्ताद भी उनकी सेवा के कायल हो गए और वक्त निकालकर नौशाद (Naushad Ali) साज़ों के तारों पर हाथ भी साफ करने लगे।

घर लौटने में अकसर देर होती थी और वालिद का गुस्सा भी जायज़ था, पर नौशाद का संगीत-प्रेम तो एक फैलती लता की तरह मंज़िलें तय कर रहा था। एक दिन गुरबत अली दुकान ज़रा जल्दी पहुँच गए तो देखा कि नौशाद (Naushad Ali) एक साज़ के साथ खोए हुए हैं।

अब गुरबत अली को समझ में आया कि यह लड़का क्यों इस दुकान में नौकरी करने आया। पर मन ही मन वे रीझ भी गए और नौशाद (Naushad Ali) को एक नया साज़ उपहार में देकर यह यकीन भी दिलाया कि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि नौशाद आगे चलकर एक आला दर्जे के फनकार बनेंगे। किसी ने नौशाद की प्रतिभा की पहली बार खुले दिल से तारीफ की थी, और एक दिन जब गुरबत अली ने चुपचाप लड्डन मियाँ को बुलाकर नौशाद का बजाना सुनाया तो लड्डन मियाँ भी कायल हो गए और नौशाद को अपने साथ रखकर सिखाने का भी ऐलान कर दिया।

उन्हीं दिनों ‘न्यू ड्रामा कम्पनी’ लखनऊ आई, और उनको नौशाद ने गीत-संगीत के बारे में जो सुझाव दिए, वे इतने पसंद आए कि नौशाद (Naushad Ali) को उस कम्पनी में ही भर्ती कर लिया गया कम्पनी के साथ कुछ दिनों इधर-उधर गए भी, पर जब कम्पनी ने दम तोड़ दिया तो नौशाद को घर लौटना पड़ा। वालिद का गुस्सा अपने शबाब पर था और उन्होंने फरमान जारी किया कि यदि घर में रहता है तो मिरासी बनने की तमन्ना छोड़नी होगी पर नौशाद को तो शायद संगीत के लिए ही खुदा ने दूसरा जन्म दिया था। उन्होंने घर ही छोड़ दिया और बम्बई का रुख किया।

एक दोस्त अब्दुल मजीद ‘आदिल’ ने अपने एक परिचित अलीम ‘नामी’ के नाम चिट्ठी दे दी, पर बम्बई पहुँचकर नामी साहब को ढूँढ़ने में ही कई दिन लग गए, और नामी साहब की हालत भी ऐसी नहीं थी कि जल्दी कुछ कर सकते। फिर भी उन्होंने काफी वक्त बाद एक फिल्म कम्पनी का साजिंदों के लिए दिया इश्तहार देखकर नौशाद (Naushad Ali) को वहाँ जाने की सलाह दी। इंटरव्यू के लिए बुलाया आया ग्रांट रोड, खेतवाड़ी के एक ऑफिस में इंटरव्यू था और लेनेवाले थे मशहूर संगीतकार उस्ताद झंडे खाँ।

इंटरव्यू देने वालों की कतार में गुलाम मुहम्मद भी थे जो आगे चलकर नौशाद (Naushad Ali) के वर्षों तक सहायक रहे। नौशाद इंटरव्यू और झंडे खाँ के नाम से काफी घबड़ाए से रहे, पर फिर भी जैसे-तैसे कर के जो सूझा वह सुना दिया और काफी नाउम्मीद से वापस आ गए पर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब उन्हें मालूम हुआ कि उन्हें चुन लिया गया है और साथ ही गुलाम मुहम्मद भी चुन लिए गए थे।

नौशाद को न्यू पिक्चर कम्पनी के लिए पियानोवादक के रूप में चालीस रुपए महीने पर रखा गया, और गुलाम मुहम्मद को साठ रुपए महीने पर कम्पनी का स्टूडियो चेंबूर में था अब नौशाद (Naushad Ali) ने नामी साहब पर बोझ बने रहना उचित नहीं समझा और लखनऊ के ही एक अख्तर साहब के साथ दादर में रहने लगे। अख्तर साहब एक दुकान में सेल्समैन थे और उसी के अंदर रहा भी करते थे। रात को दुकान के भीतर बड़ी गर्मी लगती थी, इसलिए दोनों दोस्त बाहर फुटपाथ पर आ जाते थे और वहीं बिस्तर लगा लेते थे।

नौशाद (Naushad Ali) ने जो पहला गीत कम्पोज़ किया, वह था ‘बता दो मोहे कौन गली गए श्याम’ जो उसी लीला चिटणीस ने गाया जिनका सीढ़ियों पर चप्पल खटखटाते हुए चढ़ जाना कभी लेटे हए नौशाद देखा करते थे पर इस गाने की रेकॉर्डिंग में नौशाद को बड़ी तकलीफ हई। कारण था साजिंदों का असहयोगात्मक व्यवहार। वे इस बात को सहन नहीं कर पा रहे थे कि कल तक जो लड़का उनके साथ बजाया करता था, वह उन्हें संगीत-निर्देशक बनकर निर्देशित करे। साजिंदों के इस व्यवहार के कारण नौशाद (Naushad Ali) ने ‘कंगन’ (1939) में मात्रा एक गीत कम्पोज़ करके इस्तीफा दे दिया और रंजीत को अलविदा कह दिया। वैसे यह एक गीत भी बहुत सुंदर था-अवधी-भोजपुरी लोक-संगीत की छाप इस पहले गीत से ही स्पष्ट है। बिरहा जैसी इसकी धुन उस ज़माने में पूर्वी उत्तर प्रदेश विशेषकर बनारस के कोठों पर गाई जाने वाली गीतों से भी खूब मेल खाती है।

डी.एन. मधोक नौशाद (Naushad Ali) से इतने प्रभावित थे कि वे हर जगह नौशाद की तारीफों के पुल बाँध देते थे। उनकी सिफारिश पर ही भवनानी प्रोडक्शन्स की ‘प्रेमनगर’ (1940) में नौशाद को बतौर संगीतकार फिर रखा गया। फिल्म के गीत अभिनय करने वाले कलाकारों-विमला कुमारी,  रामानंद, हुस्नबानो आदि ने गाए।

नौशाद के संगीत की एक खासियत थी लोक-रंग और लोक अभिरुचि को ध्यान में रखते हुए शास्त्रीय आधार के गीतों की इस तरह प्रस्तुति कि वे दुरूह और नीरस न लगकर सुगम और गुनगुनाने लायक बनें। उन्होंने स्तर के साथ कभी समझौता नहीं किया, बल्कि एक-एक गीत पर वे भरपूर मेहनत करते थे। ऑर्केस्ट्रा में भी कई प्रयोग उन्होंने इस दशक में किए और कई नवीन धाराओं का सूत्रपात किया।

पाँचवें दशक के उनके गीत बड़े सहज लगते हैं, मानो किसी आशु संगीतकार की प्रतिभा नदियाँ बहा रही हों और सभी उसमें स्नान करने खिंचे चले आ रहे हों। उत्तर प्रदेश के अवधी-पूरबी लोकगीतों और लोक रिद्म का भी फिल्मों में पहली बार प्रचुर इस्तेमाल करने वाले नौशाद (Naushad Ali) ही थे। उनके इस दशक के आगे उल्लिखित कई गीतों में इस लोक-रस का बड़ा प्रांजल इस्तेमाल रहा।

शास्त्रीय और लोक आधार पर मनोहर सरल धुनों के साथ नौशाद (Naushad Ali) एक नयी प्रवृत्ति लेकर आए। संगीतकार को अपने दम पर इतनी प्रतिष्ठा पहले कभी नहीं मिली थी। इस वक्त की नौशाद की सबसे सफल फिल्म रही ‘रतन’। ‘रतन’ के गीतों ने अपने झूमते-झूमते लोग-रिदम से लोगों को पकड़ लिया। दीनानाथ मधोक के लिखे गीत और नौशाद का संगीत तो कई फिल्मों में था और यह जोड़ी इस समय के फिल्म संगीत की सफलतम गीतकार-संगीतकार की जोड़ी थी, पर ‘रतन’ तो इस जोड़ी का उत्कर्ष था। ‘मिल के बिछड़ गई अँखियाँ हाय रामा’ (अमीरबाई) की अल्हड़ शोखी हो, ‘रुमझुम बरसे बादरवा’ (ज़ोहरा, साथी) की तन्मयता हो, ‘अँखियाँ मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना’ (जोहरा) की लोच और मनुहार की बहती भावना हो या ‘जब तुम ही चले परदेस लगाकर देश (करन दीवान) का सहज, उदास तरन्नुम हो, इन सभी गीतों के ताजे झोंके ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान बनाए।

जिन दिनों ‘रतन’ रिलीज़ हुई, उन्हीं दिनों नौशाद (Naushad Ali) की शादी लखनऊ में तय हो गई। चूँकि दोनों ही परिवारों में गाने-बजाने की खिलाफत थी, इसलिए यह बताया गया था कि लड़का बम्बई में दर्जी है। अब मज़ा देखिए कि नौशाद (Naushad Ali) मियाँ नौशा बनकर घोड़े पर बैठे हैं और बैंड वाले बिना यह जाने कि धुन-सृजक की ही बारात है, बड़े धूम से ‘रुमझुम बरसे बदरवा’ और ‘अंखियाँ मिला के’ की धुन बजाए जा रहे हैं। ‘रतन’ के संगीत की सफलता तो इसी से आँकी जा सकती है कि फिल्म के निगेटिव की कीमत 75,000 रुपए थी जब कि गानों की रॉयल्टी से साढ़े तीन लाख रुपए आए और ‘खजांची’ का ‘कीर्तिमान भी टूट गया। ‘रतन’ फिल्म के संगीत में नौशाद (Naushad Ali) ने कई नई बातें पैदा की-सितार और बाँसुरी का मिला-जुला प्रयोग पहली बार इसी फिल्म में हुआ जो आज तक चल रहा है। ढोलक का भी इस्तेमाल इस फिल्म में अनूठे तरीके से हुआ। यह भी रोचक है कि इस ढोलक को वर्षों तक उनके सहायक रहे गुलाम मुहम्मद ने बजाया था।

नौशाद (Naushad Ali) की संगीतकार के रूप में इस दौर की सफलता इतनी थी कि 1949 में ही उन्हें एक फिल्म के लिए एक लाख रुपए मिलने लगे थे गुलाम हैदर जैसे कई संगीतकारों के पाकिस्तान चले जाने का फायदा भी नौशाद और सी. रामचंद्र जैसे संगीतकारों को मिला ही, पर यह निर्विवाद है कि नौशाद ने इस वक्त तक अपनी अलग बेहद प्रतिष्ठित शख्सियत तो बना ही ली थी।

गायकों में मुकेश का प्रभुत्व तो महबूब प्रोडक्शन की ‘अंदाज़’ (1949) में भी कायम रहा, पर मुख्य गायिका के लिए उन्होंने ज़ोहरा, उमा देवी, निर्मला और शमशाद को छोड़कर ‘अंदाज़’ के लिए लता का चुनाव किया।

लता को नौशाद से किसने मिलाया, इसको लेकर कई कहानियाँ और कई प्रसंग चर्चित हैं, जिनमें एक तो यह भी है कि नौशाद (Naushad Ali) को लता के बारे में स्टूडियो में कार्यरत किसी मराठी चपरासी ने ‘अंदाज में दिलीप और नरगिस को जानकारी दी। गुलाम हैदर और दुर्रानी का भी नाम इस सिलसिले में लिया जाता है यह भी कहा जाता है कि कारदार स्टूडियो में बगल से गुनगुनाते हुए गुज़रती लता की सुरीली आवाज़ से प्रभावित होकर नौशाद ने उनकी खोज करवाई। पर शायद सच यह है कि ‘मजबूर’ में लता के साथ गा चुके मुकेश ने ही लता का तारूफ नौशाद से कराया था। बहरहाल, लता से नौशाद प्रभावित भी बहुत हुए और लता के साथ मेहनत भी उन्होंने बहुत की न सिर्फ उर्दू के लफ्ज़ों की शुद्ध अदायगी बल्कि शब्दों के अर्थ को आत्मसात कर उसकी भावनात्मक प्रस्तुति का कौशल भी नौशाद से लता ने सीखा।

राजू भारतन ने लता पर लिखी अपनी किताब में भी इस तथ्य का ज़िक्र किया है कि धुन के रिहर्सल के पहले ‘अंदाज़’ के ‘उठाए जा उनके सितम’ को नौशाद (Naushad Ali) ने लता से किस तरह 20-30 बार पढ़वाया ताकि शब्दों की अर्थव्यंजकता और बोलों के वजन पर पूरी पकड़ बन सके। शायद यही कारण है कि केदार के सुरों पर ‘उठाए जा उनके सितम’ की भावाभिव्यक्ति को सुनकर आदमी आज भी मंत्रमुग्ध रह जाता है।

कहते हैं कि इस गीत की रिकॉर्डिंग को नौशाद (Naushad Ali) ने इस गोपनीय चतुराई से व्यवस्थित किया था कि लता की आवाज़ जब माइक्रोफ़ोन से गूँजी तो वहाँ उपस्थित फिल्म से सम्बन्धित सभी नामी-गिरामी शख्स अचम्भित रह गए। यह भी कहा जाता है कि वहाँ राज कपूर भी मौजूद थे, और उन्होंने रिकॉर्डिंग के बाद लता के पास जाकर कहा था कि आपने इतना अच्छा गाया, इतना अच्छा गाया कि मेरी तो आँखों में आँसू आ गए। लता के इस गायन से प्रभावित होकर ही राज कपूर ने ‘बरसात’ में लता की आवाज़ के साथ अपना सफर भी शुरू किया था।

बहरहाल, ‘अंदाज़’ में लता की मीठी आवाज़ बिलावल के साथ ‘मेरी लाडली री बनी है तारों की तू रानी’, पहाड़ी के सुरों के साथ ‘तोड़ दिया दिल मेरा’ और बड़ी कर्णप्रिय हिलोर के साथ ‘कोई मेरे दिल में खुशी बन के आया’ जैसे गीतों में भी खूब फबी थी।

कहते हैं, ‘तोड़ दिया दिल मेरा’ पंद्रह रिहर्सलों के बाद रिकॉर्ड हुआ था और वह भी भरी बरसात में चारों तरफ पानी ही पानी के बीच । लता सीधे-सीधे नौशाद के खेमे की प्रमुख गायिका बन गई और नरगिस के लिए नौशाद ने उनकी आवाज़ ली, जबकि शमशाद को पता भी न चला कि लता के साथ उनके बेहद मीठे दो गाने ‘डर ना मुहब्बत कर ले में उनकी आवाज़ नायिका के लिए न ली जाकर कुक्कू के ऊपर फिल्माई जा रही थी। यह भी मज़ेदार तथ्य है कि राज कपूर के लिए इस फिल्म में रफी ने स्वर दिया, जबकि दिलीप कुमार के लिए नौशाद मुकेश को लाए।

राज और नरगिस पर फिल्माया एक मात्र गीत ‘यूँ तो आपस में बिगड़ते हैं खफा होते हैं (लता, रफी) तो खास मकबूल नहीं हुआ, पर दिलीप के लिए मुकेश ने एक से बढ़कर एक गीत गाए दिलीप यूँ तो मुकेश के पक्षधर नहीं थे, पर नौशाद (Naushad Ali) ने उन्हें मुकेश की भावनाप्रधान गायकी के चमत्कार से संतुष्ट कर ही लिया।

उस वक्त के संगीतकार और गायक कितनी मेहनत करते थे यह इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि ‘अंदाज़’ के गानों की रिहर्सल के लिए मुकेश अपने घर मालाबार हिल्स से बीसियों बार लोकल ट्रेन से नौशाद (Naushad Ali) के बांद्रा स्थित घर जाया करते थे।

फिल्म ‘साथी’ की सफलता के बावजूद ज़माना अब नौशाद (Naushad Ali) का नहीं रह गया था। फिल्म-संगीत के आठवें दशक के परिवर्तनों के बीच झुमते युवावर्ग के पास अब नौशाद (Naushad Ali) की मेलोडी के उस पुराने रूप के लिए कोई जगह नहीं थी। “टाँगेवाला (1972) के ‘कर भला होगा भला’ (मुकेश) और पंजाबी गिद्दा की शैली वाले ‘आई रे खिलौनेवाली आई (लता) जैसे गीत वक्त के सामने बासी थे। कला केंद्र फिल्म्स, मद्रास की राजेश खन्ना, मुमताज अभिनीत ‘आईना’ (1974) भी असफल रही और ‘वो जो औरों की खातिर मर मिटे’ (लता) और ‘जाने क्या हो जाए जब दिल से दिल टकराए’ (लता, रफी) की लोकप्रियता भी क्षणिक ही रही।

नौशाद (Naushad Ali) के पास पुरस्कारों और सम्मानों का तो जाना ही है। बैजू बावरा’ के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार, ‘गंगा जमुना’ के लिए ‘बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन पुरस्कार’ (1961), ‘पालकी’ के लिए ‘सरस्वती पुरस्कार’ से लेकर महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार’, ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ (1982), ‘लता मंगेशकर पुरस्कार’ (1984), ‘अमीर खुसरो एवार्ड’ (1987), ‘पद्मभूषण (1992) और ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ (1993) जैसे बड़े सम्मानों से उन्हें नवाज़ा गया है। उनकी 25 फिल्मों ने सिलवर जुबली, 9 ने गोल्डेन जुबली तथा 3 फिल्मों ने प्लैटिनम जुबली मनाई।

दूरदर्शन के लिए उनके जीवन पर कई फिल्में बनी हैं तथा उन पर कई किताबें भी लिखी गई हैं जिनमें मराठी में ‘दास्तान-ए-नौशाद (Naushad Ali)’ और गुजराती में ‘आज गावत मन मेरो’ भी शामिल हैं नौशाद (Naushad Ali) वर्षों तक फ़िल्मी संगीतकार एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे। शिकार और मछली पकड़ने के अपने जमाने में वे बेहद शौकीन रहे हैं, और आज भी महाराष्ट्र स्टेट ऐंगलिंग एसोसिएशन के वे अध्यक्ष हैं। गुज़रे दिनों में शकील और मजरूह के साथ वे कई दिन पवई झील पर घंटों मछली पकड़ने में बिताते थे। टी.वी. धारावाहिक ‘The Sword Of Tipu Sultan’, ‘सरगम’ और ‘Akbar the Great’, में नौशाद का ही संगीत रहा था। हेमंती शुक्ला के साथ उनके बांग्ला एलबम को भी अच्छी सफलता मिली।

रफ़ी को श्रद्धांजलि के तौर पर उनका निकाला एलबम सुर और तेरे गीत’ भी बहुत मकबूल रहा है, जिसमें उन्होंने अप्रदर्शित फिल्म ‘हब्बा खातून’ का एक बड़ा जबर्दस्त गीत ‘जिस रात में ख्वाब आए’ भी श्रोताओं तक पहुँचाया।

इधर अपनी शायरी की किताब ‘आठवाँ सुर’ की रचनाओं को स्वयं कम्पोज़ कर उन्होंने हरिहरन और प्रीति उत्तम से भी गवाया है। अकबर खान ने अपनी फिल्म ‘ताजमहल’ में संगीत देने के लिए उन्हें अनुबंधित किया है। कुछ गैर-फिल्मी गीतों का सृजन भी नौशाद के हिस्से में आया है। रफी के स्वर में ‘ऐ मेरे लाडलो’, ‘बीते दिनों की यादें’, ‘मुहब्बत खुदा है’, मुकेश के स्वर में ‘क्यूँ फेरी नज़र’ आदि पर ऐसे प्रयास नौशाद ने कम ही किए।

हिंदी सिनेमा जगत में 6 दशकों तक अपना जादू बिखेरने वाला यह फनकार 5 मई 2006 को हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गया। नौशाद हिंदी फिल्मी जगत को अपनी संगीत साधना से खुशनुमा कर गए। 

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