पुण्यतिथि विशेष: आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के लिए सिरदर्द थीं दुर्गा भाभी, भगत सिंह की नकली पत्नी बन अंग्रेजों से उन्हें बचाया

भगत सिंह (Bhagat Singh), राजगुरु, सुखदेव को छुड़ाने के लिए दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) जी-जान से जुटी रहीं। इसके लिए वह महात्मा गाँधी से भी मिलीं और कहा कि भगत सिंह एवं उनके साथियों को छुड़ाने के लिए वायसराय से कहें।

Durgawati Devi

Durgawati Devi Death Anniversary

दुर्गावती देवी बोहरा जन्म 7 अक्टूबर, 1907 को इलाहाबाद में हुआ। पिता बांके बिहारी भट्ट तथा माता का साया शीघ्र ही उठ गया। 11 वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी दल के सदस्य भगवती चरण बोहरा के साथ विवाह हुआ। बोहरा घर से समृद्ध होने के कारण वह धन से भी क्रान्तिकारियों की मदद करते थे तथा स्वयं भी क्रान्तिकारी थे। दुर्गा (Durgawati Devi) ने लाहौर में आकर शिक्षा-क्रम जारी रखते हुए कक्षा दस पास की एवं एक अध्यापिका की नौकरी कर ली, भगवती चरण बोहरा लाहौर के राष्ट्रीय महाविद्यालय में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु व यशपाल आदि के साथ पढ़ते थे। महाविद्यालय में पढ़ते समय भगवतीचरण बोहरा क्रान्तिकारी गतिविधियों में लिप्त थे। दुर्गा देवी पर भी ऐसी बातों का प्रभाव पड़ा। क्रान्तिकारी उन्हें दुर्गा भाभी कहते थे। यह भी क्रान्तिकारियों को शस्त्र पहुंचाने में मदद करती थीं। नौकरी इसलिए की जिससे पुलिस इन पर किसी प्रकार का संदेह न कर सके।

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सन् 1928 में साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय को पुलिस अधिकारी सांडर्स के निर्देशन में बुरी तरह से पीटा गया, जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गई। 18 दिसम्बर, 1928 को लाहौर में भगत सिंह (Bhagat Singh), सुखदेव व राजगुरु ने गोली मारकर सांडर्स की हत्या कर दी। अंग्रेज सरकार क्रान्तिकारियों की इस हरकत से बौखला गई। बाहर जाने के सभी रास्ते बन्द कर दिए गए तथा लाहौर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी गई, जिसके कारण पुलिस इनके पीछे पड़ गई। भगवती चरण लाहौर से भागने में सफल हो गए। दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) भी लाहौर आकर एक गली में छोटे से मकान में रहने लगीं उन्हें लाला जी की मृत्यु एवं क्रांतिकारियों का पता था। अचानक घर में सुखदेव ने दवे पाँव प्रवेश किया और बोला कि भाभी किसी की जान बचानी है तुम्हें इसी समय किसी की पत्नी बनकर सफर करना होगा और आपका पुत्र शचीन्द्र भी साथ जाएगा कुछ समय बाद भगत सिंह अंग्रेजी लिबास में सिर पर फ्लैट हैट लगाकर तथा दुर्गा भाभी पश्चिमी वेष-भूषा पहनकर पुत्र शचीन्द्र के साथ लाहौर से कोलकाता जाने वाली रेलगाड़ी के प्रथम डिब्बे में बैठ गए।

भगत सिंह व दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) ने पति-पत्नी की भूमिका निभाई व राजगुरु ने मैले-कुचेले कपड़े पहन कर सामान सम्भालते हुए नौकर की भूमिका अदा की। भगवती चरण बोहरा व सुशीला दीदी उन्हें लेने के लिए कलकत्ता रेलवे स्टेशन पर खड़े मिले। यह कदम अत्यन्त जोखिमपूर्ण था। भगवती चरण बोहरा ने स्टेशन पर दुर्गा भाभी को देखते ही कहा ‘दुर्गा वास्तव में हमारा विवाह तो आज ही हुआ है एक पत्नी की जिम्मेदारी का पूर्ण निर्वाह किया।’ दुर्गा भाभी ने कहा कि विवाह तो बहुत पहले हो चुका, वह क्या था ? भगवती चरण ने कहा वह तो गुड्डे-गुड़िया का खेल था। इस प्रकार भगत सिंह (Bhagat Singh) दुर्गा भाभी के साथ सुरक्षित कलकत्ता सुशीला दीदी के यहाँ पहुँच गए।

कुछ समय बाद भगत सिंह (Bhagat Singh) व उनके साथियों ने दिल्ली असेम्बली में बम फेंक दिया और पकड़े गये। उधर भगत सिंह राजगुरु, सुखदेव पर सांडर्स हत्या काण्ड का मुकदमा चल रहा था। इन तीनों को अदालत ने फाँसी की सजा सुनाई। इन तीनों क्रांतिकारियों को जेल से छुड़ाने के लिए चन्द्र शेखर आजाद ने एक योजना बनाई कि जेल को बम से उड़ा दिया जाये। दिल्ली में बम बनाने की एक फैक्ट्री लगाई गई जिसमें भगवती चरण बोहरा, दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) व अन्य क्रान्तिकारी बम बनाना सीख रहे थे। फैक्ट्री के बाहर बोर्ड पर साबुन बनाने की फैक्ट्री लिखा हुआ था।

दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) पहले ही लाहौर आकर अपने मकान में रहने लगीं। बम का परीक्षण रावी नदी के किनारे होना था। दिनांक 28 मई, 1930 को पूरा दल बहावलपुर कोठी लाहौर में जमा था। दोपहर के समय भगवती चरण, सुखदेव, विश्वनाथ वैशम्पायन रावी के तट पर पहुँचे। भगवती चरण ने उन दोनों को बम फेंकने से मना कर दिया। वे अच्छी तरह जानते थे कि इस बम परीक्षण में जान जाने का पूर्ण खतरा था।

बम में थोड़ी-सी भी खराबी होने पर वह हाथ में फट सकता था।  परन्तु उन्होंने दोनों साथियों को पीछे धकेला और स्वयं बम की पिन खींच दी। बम अभी हाथ में ही था, पिन निकालते ही वह फट गया।

भगवती चरण का शरीर बम धमाके की चपेट में आ गया और शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गए। आजादी का परवाना अपनी शमा के लिए शहीद हो गया। भगवती चरण के शरीर को रावी के किनारे मिट्टी में दबा दिया। रावी में इतना जल भी नहीं था कि शव को पानी में बहा देते। सभी साथियों की आंखों में आंसू थे। दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) सभी को शान्त भाव से चुप करा रही थीं। उनका मानना था कि उनके पति शहीद हुए हैं और शहीद कभी मरते नहीं हैं उस दिन तो आजाद जैसे क्रांतिकारी भी रो दिए। दुर्गा देवी ने पति की मौत पर कहा ‘पति नहीं रहे तो भी दल का काम नहीं रुकेगा।

चन्द्र शेखर आजाद ने दुर्गा देवी को अपनी मां मानकर तथा बच्चे शचीन्द्र को भाई मानकर उनका पूर्ण दायित्व अपने ऊपर लिया। जब तक आजाद जिये उन्होंने दुर्गा देवी के सामने कभी भी पैसे का अभाव नहीं आने दिया।

पुलिस लगातार दुर्गा देवी (Durgawati Devi) को परेशान करती रहती। न जाने कितनी बार घर पर छापा पड़ता और सारे-सामान को पुलिस इधर-उधर बिखेर जाती। अन्तः में उनके घर की संपत्ति को भी जब्त कर लिया गया दुर्गा देवी क्रान्तिकारियों की सहायता करने के लिए घर से बाहर जातीं तो छोटे पुत्र को कभी किसी के यहाँ, कभी किसी के यहाँ छोड़कर जाती थीं। क्रांतिकारियों की बन्दूक, पिस्तौल, बम, सूचनाएँ आदि पहुँचाने का काम आखिरी समय तक करती रहीं। भगवती चरण बोहरा की मृत्यु के बाद जो सम्मान क्रांतिकारियों ने दुर्गा भाभी को दिया वह इतिहास में अविस्मरणीय है।

दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) भगत सिंह को छुड़वाने की हर-संभव कोशिश की

भगत सिंह (Bhagat Singh), राजगुरु, सुखदेव को छुड़ाने के लिए दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) जी-जान से जुटी रहीं। इसके लिए वह महात्मा गांधी से भी मिलीं और कहा कि भगत सिंह एवं उनके साथियों को छुड़ाने के लिए वायसराय से कहें लेकिन शायद गांधी जी के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं था। दुर्गा भाभी बहुत निराश हुईं। भगत सिंह को जेल से छुड़ाने के चक्कर में उनका पति शहीद हो गया और दुर्गा भाभी स्वयं विधवा हो गईं भगत सिंह को छुड़ाने के सारे प्रयत्न विफल हो गए। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को लाहौर में फाँसी दे दी गई। यह सूचना दुर्गा भाभी को बम्बई में मिली जब वह एक क्रांतिकारी मिशन के लिए बम्बई गई हुई थीं।

दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) ने भगत सिंह (Bhagat Singh) की मौत का बदला लेने के लिए बम्बई कमिश्नर की हत्या करने का षड्यंत्र रचा, जबकि आजाद ने ऐसा करने से मना किया था। योजना के अनुसार सभी क्रान्तिकारी कमिश्नर ‘हेली’ के बंगले पर जाते और वहां दुर्गा भाभी अपना विजिटिंग कार्ड दिखाकर कमिश्नर को बातों में उलझा लेतीं और तभी कमिश्नर को गोली मारनी थी, लेकिन पुलिस चौकन्नी थी, वे गाड़ी के नम्बर नोट कर रहे थे। अतः कमिश्नर के बंगले से अपनी गाड़ी में वापस लौट आये। लेकिन रास्ते में लेमिंगटन स्टेशन के पास अंग्रेज दिखाई दिए, अतः दुर्गा भाभी तथा अन्य साथियों ने उन पर गोली चला दी। अंग्रेजों को घायल अवस्था में छोड़ दुर्गा भाभी अपने ठिकाने पर आ गई। सुबह होते ही ठिकाना बदल दिया गया। पुलिस पहुँची ही थी कि दुर्गा भाभी सस्ते में अपने साथियों को इधर-उधर भेजकर अकेली गुप्त स्थान पर चली गईं। कार का ड्राइवर पकड़ा गया और उसने पूछताछ में बताया कि जिसने गोली चलाई उस युवक के बाल लम्बे थे। क्योंकि दुर्गा भाभी पुरुष वेष में गाड़ी में बैठी थीं। अतः दुर्गा भाभी पर पुलिस को शक नहीं हुआ और छानबीन में भी दुर्गा भाभी का नाम नहीं आया।

इसके बाद दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) इधर-उधर भटकती रहीं। कुछ समय के लिए दुर्गा भाभी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जी के यहाँ रहीं वे उन्हें बेटी की तरह स्नेह देते थे। चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में पुलिस मुठभेड़ में शहीद हो गए। दुर्गा भाभी को जब यह सूचना मिली तो उनके दुख की कोई सीमा नहीं रही। अब उनका आखिरी सहारा भी छिन गया।

पुलिस लगातार उनका पीछा कर रही थी। पुलिस की वजह से उसने अपने पुत्र शचीन्द्र को अपने किसी मित्र के यहां छोड़ रखा था। पुलिस से तंग आकर वह एक दिन लाहौर पहुंचीं और ‘प्री प्रेस आफ इंडिया’ को अपने वक्तव्य में कहा कि यदि पुलिस मुझे दोषी समझती है तो बन्दी बनाकर मुकदमा चलाये नहीं तो भविष्य में मैं अपने को स्वतंत्र मानेगी।

यह वक्तव्य पढ़कर पुलिस ने दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें तरह-तरह की यातनाएं देकर क्रांतिकारियों के राज खुलवाने की कोशिश की, लेकिन दुर्गा भाभी ने कुछ भी नहीं बताया। अन्त में लेमिगंटन केस में दुर्गा भाभी को बन्दी बनाकर मुकदमा चलाया गया। दुर्गा भाभी को चार वर्ष की सजा हुई।

क्रान्तिकारी दल के सदस्य या तो आजन्म कारावास काट रहे थे या शहीद हो गए थे। ऐसे में दुर्गा भाभी (Durgawati Devi) अकेली पड़ गईं। देश आजादी की ओर बढ़ रह था। अतः दुर्गा भाभी समाज सेवा में जुट गईं। उन्होंने 1939 में सुभाष चन्द्र बोस का त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में साथ दिया और नेताजी कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1940 में लखनऊ आकर उन्होंने एक छोटे से विद्यालय का श्रीगणेश किया और बच्चों को पढ़ाने लगीं। 15 अक्टूबर, 1998 को उनकी मृत्यु हो गई। वह मृत्यु के समय अपने पुत्र शचीन्द्र के साथ गाजियाबाद उ.प्र. में रह रही थीं।

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