Dr. Shayama Prasad Mukherjee: डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को एक राष्ट्र, दो झंडे कबूल नहीं थे

डॉ. मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत का ही परिणाम है कि आज हम बिना परमिट जम्मू-कश्मीर आ-जा रहे हैं।

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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि।

भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक शिक्षाविद, प्रखर वक्ता, कुशल संगठनकर्ता और बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे केवल एक राजनीतिज्ञ ही नहीं बल्कि राष्ट्रवादी और देशभक्त भी थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत का ही परिणाम है कि आज हम बिना परमिट जम्मू-कश्मीर आ-जा रहे हैं। केवल 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और विश्व के सबसे युवा कुलपति होने का सम्मान प्राप्त किया। वे 1938 तक इस पद पर रहे। डॉ. मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को कलकत्ता में हुआ था। साल 1914 में मैट्रिक परीक्षा पास करके श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिल ले लिया। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में अपनी स्नातक की डिग्री हासिल की और इसके बाद बंगाली भाषा में एमए की पढ़ाई की।

एमए की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने वकालत की पढ़ाई करने का फैसला लिया और कानून में स्नातक की डिग्री सन 1924 में हासिल की। वकालत की शिक्षा हासिल करने के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकील के तौर पर कार्य करना शुरू कर दिया। इसी दौरान राजनीति में उनका प्रवेश हुआ। उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी और कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल विधान परिषद का सदस्य चुना गया। किंतु कांग्रेस द्वारा विधायिका के बहिष्कार का निर्णय लेने के पश्चात उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। बाद में उन्होंने स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए। जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शामिल किया। लेकिन नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच हुए समझौते के पश्चात 6 अप्रैल, 1950 को उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया।

इसके बाद उन्होंने 21 अक्तूबर, 1951 को जनसंघ की स्थापना की। 1951-52 के आम चुनाव में जनसंघ के तीन सांसद चुने गए, जिनमें से एक डॉ. मुखर्जी भी थे। डॉ. मुखर्जी भारत की अखंडता और कश्मीर के विलय के दृढ़ समर्थक थे। अनुच्छेद 370 के राष्ट्रघातक प्रावधानों को हटाने के लिए भारतीय जनसंघ ने हिन्दू महासभा और रामराज्य परिषद के साथ सत्याग्रह आरंभ किया। डॉ. मुखर्जी इस प्रण पर सदैव अडिग रहे कि जम्मू एवं कश्मीर भारत का एक अविभाज्य अंग है। उन्होंने नारा दिया था, “एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा।” उस समय अनुच्छेद 370 में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी भारत सरकार से बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता। डॉ. मुखर्जी इस प्रावधान के सख्त खिलाफ थे।

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उनका कहना था कि नेहरू ने ही यह बार-बार ऐलान किया है कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य का भारत में 100 प्रतिशत विलय हो चुका है, फिर भी यह देखकर हैरानी होती है कि इस राज्य में कोई भारत सरकार से परमिट लिए बिना दाखिल नहीं हो सकता। उन्होंने इस प्रावधान के विरोध में भारत सरकार से बिना परमिट लिए जम्मू एवं कश्मीर जाने की योजना बनाई। जम्मू के नेता पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने बलराज मधोक के साथ मिलकर “जम्मू एवं कश्मीर प्रजा परिषद पार्टी” की स्थापना की थी। इस पार्टी ने डोगरा अधिकारों के अलावा जम्मू एवं कश्मीर राज्य के भारत संघ में पूर्ण विलय की लड़ाई, बिना रुके, बिना थके लड़ी।

डॉ. मुखर्जी 8 मई, 1953 की सुबह 6:30 बजे दिल्ली रेलवे स्टेशन से पैसेंजर ट्रेन में अपने समर्थकों के साथ सवार होकर जम्मू के लिए निकले। उनके साथ बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, टेकचंद, गुरुदत्त और कुछ पत्रकार भी थे। रास्ते में डॉ. मुखर्जी की एक झलक पाने एवं उनका अभिवादन करने के लिए लोगों का सैलाब उमड़ पड़ता था। जालंधर के बाद उन्होंने बलराज मधोक को वापस भेज दिया और अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ी। 11 मई, 1953 को डॉ. मुखर्जी ने परमिट व्यवस्था का उल्लंघन करके जम्मू एवं कश्मीर की सीमा में प्रवेश किया। प्रवेश करते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी के दौरान ही रहस्यमय परिस्थितियों में 23 जून, 1953 को उनकी मौत हो गई। नेहरू ने 30 जून, 1953 को डॉ. मुखर्जी की माता जी को एक शोक सन्देश भेजा।

उनकी माता जी ने 4 जुलाई को नेहरू को एक पत्र लिखकर अपने बेटे की मौत की जांच की मांग की। मगर पंडित नेहरू ने जांच की मांग को खारिज कर दिया। उन्होंने लिखा, “मैंने कई लोगों से पता किया है, उनकी मौत में किसी प्रकार का कोई रहस्य नहीं था।” लेकिन सत्य यह है कि आज भी डॉ. मुखर्जी की मौत के कारणों पर पड़ा परदा नहीं हट पाया है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी अपने विचारों को बिना किसी डर के प्रकट करते थे और उन्होंने हमेशा ही उन बातों के खिलाफ अपनी आवाज उठाई थी जो इनको देश की भलाई के विरुद्ध लगती थीं। लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए ही इन्होंने भारतीय जनसंघ पार्टी का गठन किया था।

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