वह संगीतकार जिसे लता मंगेशकर गजलों का बादशाह कहती थीं

मदन मोहन से आशा भोंसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि आप अपनी हर फिल्मों के लिए लता दीदी को हीं क्यों लिया करते हैं, इस पर मदन मोहन कहा करते थे कि जब तक लता जिंदा है मेरी फिल्मों के गाने वही गाएगी।

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संगीतकार मदन

भारतीय संगीत में अगर गजलों को संगीतबद्ध करने की बात आती है, तो इसमें सबसे ऊपर नाम आता है संगीत निर्देशक मदन मोहन का। हिंदी फिल्म संगीत में गजलों की कंपोजीशन मदन मोहन से बेहतर कोई नहीं कर सका। लता मंगेशकर तो उन्हें गजलों का बादशाह कहती थीं। कहा जाता है, मदन मोहन के एक गीत “आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे…” से संगीत सम्राट नौशाद इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने मदन मोहन से इस धुन के बदले अपने संगीत का पूरा खजाना लुटा देने की इच्छा जाहिर कर दी थी। लेकिन इस गाने के बारे में दिलचस्प बात यह है कि इसकी धुन मदन मोहन साहब ने महज दो मिनट में बनाई थी- लिफ्ट में ग्राउंड फ्लोर से पांचवीं मंजिल तक जाने में। मदन मोहन के संगीत निर्देशन में आशा भोंसले ने फिल्म ‘मेरा साया’ के लिये ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में…’ गाना गाया जिसे सुनकर श्रोता आज भी झूम उठते हैं। फिल्मों में गजल को सम्मान और एक मुकाम दिलाया मदनमोहन ने। मदन मोहन को यह प्रेरणा बेगम अख्तर से मिली थी।

महान संगीतकार ओ.पी. नैयर जिनके निर्देशन में लता मंगेशकर ने कई सुपरहिट गाने गाये, अक्सर कहा करते थे- मैं नहीं समझता कि लता मंगेशकर, मदन मोहन के लिये बनी है या मदन मोहन लता मंगेशकर के लिये लेकिन अब तक न तो मदन मोहन जैसा संगीतकार हुआ और न लता जैसी पा‌र्श्वगायिका। आज की पीढ़ी के जिन लोगों को वास्तविक मदन मोहन प्रभाव का पता नहीं है, वे जान लें कि 2004 में आई फिल्म “वीर जारा” के संगीत मदन मोहन जी के ही थे। जिसमें उनकी धुनों का मरणोपरांत उपयोग किया गया था और जब इस फिल्म के गीत उस दौर में लोगों के मोबाइल की रिंगटोन बन रहे थे, तब मदन साहब को गुजरे 29 साल हो चुके थे। मदन मोहन संगीत के स्तर पर जितना ध्यान देते थे, गीत के बोल को पर भी उतनी ही तवज्जो देते थे।

मदन मोहन का पूरा नाम मदन मोहन कोहली था। उनका जन्म 25 जून, 1924 को हुआ था। उनके पिता राय बहादुर चुन्नी लाल फिल्म व्यवसाय से जुड़े हुए थे और बॉम्बे टाकीज तथा फिल्मिस्तान जैसे बड़े फिल्म स्टूडियो में साझीदार थे। घर में फिल्मी माहौल होने के कारण मदन मोहन भी फिल्मों में काम करके बड़ा नाम करना चाहते थे। लेकिन उनके पिता नहीं चाहते थे कि वे फिल्मों में आएं। अपने पिता के कहने पर उन्होंने सेना में भर्ती होने का फैसला ले लिया और देहरादून में नौकरी शुरू कर दी। कुछ दिनों बाद उनका तबादला दिल्ली हो गया। लेकिन कुछ समय के बाद उनका मन सेना की नौकरी से ऊब गया और वह नौकरी छोड़ कर लखनऊ आ गये और आकाशवाणी के लिये काम करने लगे। मदन मोहन और सुरैया आकाशवाणी में साथ गाते थे।

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आकाशवाणी में महन मोहन जी की मुलाकात संगीत जगत से जुड़े उस्ताद फैयाज खान, उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी जानी-मानी हस्तियों से हुई। जिनसे वे काफी प्रभावित हुए और उनका रूझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिये मदन मोहन लखनऊ से मुंबई आ गये। मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस डी बर्मन, श्याम सुंदर और सी. रामचंद्र जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों से हुई और वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। संगीतकार के रूप में 1950 में प्रदर्शित फिल्म “आंखें” के जरिये वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। फिल्म ‘आंखें’ के बाद लता मंगेशकर मदन मोहन की चहेती पा‌र्श्वगायिका बन गईं। वह अपनी हर फिल्म के लिए लता मंगेशकर से ही गाने की गुजारिश किया करते थे।

एक दिलचस्प बात है कि अपने पसंदीदा संगीतकार के साथ काम करने के लिए शुरू में लता जी ने मना कर दिया था। पर आगे चल कर इन दोनों की जोड़ी ने इतिहास बना दिया। मदन जी अपने मन की बात साफ कहते थे। इसलिए उन्हें कई दफा आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता था। मदन मोहन से आशा भोंसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि आप अपनी हर फिल्मों के लिए लता दीदी को हीं क्यों लिया करते हैं, इस पर मदन मोहन कहा करते थे कि जब तक लता जिंदा है मेरी फिल्मों के गाने वही गाएगी। लेकिन इससे आशा जी के साथ उनके रिश्ते पर कोई असर नहीं पड़ा। वे आशा जी की खास आवाज और गायकी को जानते थे। आशा जी को उन्होंने वैसे ही गाने दिए। फिल्म ‘नींद हमारी, ख्वाब तुम्हारे’ में मदन जी ने सारे गाने आशा जी से गवाए थे।

मदन मोहन के पसंदीदा गीतकार के तौर पर राजा मेंहदी अली खान, राजेन्द्र कृष्ण और कैफी आजमी का नाम सबसे पहले आता है। स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने गीतकार राजेन्द्र कृष्ण के लिये मदन मोहन की धुनों पर कई गीत गाये। जिनमें ‘यूं हसरतों के दाग़’…-अदालत (1958), ‘हम प्यार में जलने वालों को चैन कहां आराम कहां…’- जेलर (1958), ‘सपने में सजन से दो बातें एक याद रहीं एक भूल गयी’…-गेटवे ऑफ इंडिया (1957), ‘मैं तो तुम संग नैन मिला के’…-(मनमौजी), ‘ना तुम बेवफा हो’…- (एक कली मुस्काई), ‘वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गयी…’ -संजोग (1961) जैसे सुपरहिट गीत इन तीनों फनकारों की जोड़ी की बेहतरीन मिसाल हैं। मदन मोहन के संगीत निर्देशन में राजा मेंहदी अली खान रचित गीतों में ‘आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे…’- (अनपढ़- 1962), ‘लग जा गले…’- (वो कौन थी- 1964), ‘नैनों में बदरा छाये…’, ‘मेरा साया साथ होगा…’- (मेरा साया- 1966) जैसे गीत श्रोताओं के बीच आज भी लोकप्रिय हैं।

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वहीं, मदन मोहन ने अपने संगीत निर्देशन से कैफी आजमी रचित जिन गीतों को अमर बना दिया। उनमें ‘कर चले हम फिदा जानो तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो’ हकीकत (1965), ‘मेरी आवाज़ सुनो..प्यार का राज सुनो’ नौनिहाल (1967), ‘ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नही’ हीर रांझा (1970), ‘सिमटी सी शर्मायी सी तुम किस दुनिया से आई हो’ परवाना (1972), ‘तुम जो मिल गये हो ऐसा लगता है कि जहां मिल गया’ हंसते जख्म (1973) जैसे गीत शामिल हैं। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म “हकीकत” में मोहम्मद रफी की आवाज में मदन मोहन के संगीत से सजा गीत “कर चले हम फिदा जानो तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो” आज भी श्रोताओं में देशभक्ति के जज्बे को बुलंद कर देता है। आंखों को नम कर देने वाला ऐसा संगीत मदन मोहन ही दे सकते थे।

वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म “दस्तक” के लिये मदन मोहन सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए। वे संगीत के साथ-साथ खेलों में भी खासी रूचि रखते थे। उन्हें क्रिकेट, बैडमिंटन और टेनिस की बढ़िया जानकारी थी। वह खाने के साथ-साथ खाना पकाने के भी शौकीन थे। बहुत कम लोग जानते होंगे कि मदन मोहन एक बेहतरीन कुक भी थे। उन्हें भिंडी मसाला बहुत पसंद था। भिंडी मसाला लता जी की भी पसंदीदा सब्जी थी। जब भी लता जी मदन मोहन साहब के घर आतीं, वे लता जी के लिए अपने हाथों से भिंडी मसाला बनाकर उन्हें खिलाते थे।

मदन मोहन बहुत ही संवेदनशील इंसान थे। उनकी संवेदनशीलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार सितार वादक रईस खान जो उनके गीतों में सितार बजाते थे, उन्होंने मदन मोहन को अपने दोस्त के घर दावत में गाने को कहा। साथ ही रईस साहब ने मदन मोहन से पूछ लिया कि इसके लिए कितने पैसे लोगे? इस बात से महन मोहन साहब को इतनी ठेस पहुंची कि उस दिन के बाद से रईस खान की मृत्यु तक कभी भी अपने गीतों में सितार का इस्तेमाल नहीं किया। अपनी मधुर संगीत से श्रोताओं के दिल में खास जगह बनाने वाले मदन मोहन 14 जुलाई, 1975 को इस दुनिया से विदा हो गए। उनकी मौत के बाद साल 1975 में ही मदन मोहन के संगीत से सजी फिल्में ‘मौसम’ और ‘लैला मजनूं’ प्रदर्शित हुईं, जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता है।

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