Ambedkar Jayanti 2021: एक बेहतरीन अर्थशास्त्री भी थे बाबा साहेब, सबसे पहले की थी आर्थिक विकास में महिलाओं के योगदान की वकालत

बाबा साहेब (Dr. Bhim Rao Ambedkar) एक अच्छे अर्थशास्त्री भी थे, ये बात कम लोग ही जानते हैं। आज उनकी जयंती पर हम एक अर्थशास्त्री के रूप में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की उपलब्धियों की बात करेंगे।

Dr. Bhim Rao Ambedkar

Dr. Bhim Rao Ambedkar

एक अर्थशास्त्री के तौर पर डॉ. अंबेडकर (Dr. Bhim Rao Ambedkar) की सबसे चर्चित किताब ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन’ साल 1923 में प्रकाशित हुई थी।

Ambedkar Jayanti 2021: आज बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhim Rao Ambedkar) की जयंती है। भीमराव अंबेडकर को भारतीय संविधान के निर्माता के तौर पर जाना जाता है। इसके साथ ही वे समाज में छुआछूत और जाति प्रथा के खिलाफ आवाज उठाने वाले नेता थे, जिन्होंने हमेशा समाज में बराबरी की वकालत की।

लेकिन बाबा साहेब एक अच्छे अर्थशास्त्री भी थे, ये बात कम लोग ही जानते हैं। आज उनकी जयंती पर हम एक अर्थशास्त्री के रूप में बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की उपलब्धियों की बात करेंगे।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने करियर की शुरुआत एक अर्थशास्त्री के तौर पर की थी। अंबेडकर किसी अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पीएचडी हासिल करने वाले देश के पहले अर्थशास्त्री थे। उन्होंने साल 1915 में अमेरिका की प्रतिष्ठित कोलंबिया यूनिवर्सिटी से इकॉनमिक्स में एमए की डिग्री हासिल की थी। इसी विश्वविद्यालय से 1917 में उन्होंने अर्थशास्त्र में पीएचडी भी की।

अंबेडकर ने साल 1915 में एमए की डिग्री के लिए कोलंबिया यूनिवर्सिटी में ‘एडमिनिस्ट्रेशन एंड फाइनेंस ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनी’ नाम से 42 पेज का एक डेजर्टेशन सबमिट किया था। इस रिसर्च पेपर में उन्होंने बताया था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के आर्थिक तौर-तरीके आम भारतीय नागरिकों के हितों के किस कदर खिलाफ हैं।

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विद्वान कहते हैं कि एक एमए के छात्र के तौर पर लिखे गए इस रिसर्च पेपर में डॉ. अंबेडकर (Dr. Bhim Rao Ambedkar) ने जिस तरह के तर्क पेश किए हैं, वह अर्थशास्त्र पर उनकी मजबूत पकड़ को दिखाता है। इतना ही नहीं, इसके कुछ बरस बाद उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनमिक्स से भी अर्थशास्त्र में मास्टर और डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्रियां हासिल की थी।

इसके बाद अंबेडकर ने 1917 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पीएचडी के लिए जो थीसिस पेश की थी वह साल 1925 में एक किताब की रूप में प्रकाशित हुई। इस किताब में उन्होंने 1833 से 1921 के दरम्यान ब्रिटिश इंडिया में केंद्र और राज्य सरकारों के वित्तीय संबंधों की शानदार समीक्षा की है। उनके इस विश्लेषण को उस वक्त भी सारी दुनिया में बड़े पैमाने पर तारीफ मिली थी।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पोलिटिकल इकॉनमी के प्रोफेसर और जाने माने विद्वान एडविन रॉबर्ट सेलिगमैन ने अंबेडकर की इस पीएचडी थीसिस की तारीफ करते हुए कहा था कि उन्होंने इस विषय पर इससे ज्यादा गहरा और व्यापक अध्ययन सारी दुनिया में कहीं नहीं देखा है। ‘प्रॉविन्शियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ के नाम से छपी अंबेडकर की इस किताब को पब्लिक फाइनेंस की थ्योरी, खास तौर पर फेडरल फाइनेंस के क्षेत्र में अहम योगदान करने के लिए जाना जाता है।

बाबा साहब ने सालों पहले पीएचडी की थीसिस के तौर पर केंद्र और राज्यों के वित्तीय संबंधों के बारे में जो तर्क और विचार पेश किए, उसे आजादी के बाद भारत में केंद्र और राज्यों के आर्थिक संबंधों का खाका तैयार करने के लिहाज से बेहद प्रासंगिक माना जाता है। विद्वानों का ये मानना है कि भारत में वित्त आयोग के गठन का बीज डॉ अंबेडकर की इसी थीसिस में निहित है।

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साल 1918 में उन्होंने खेती और फॉर्म होल्डिंग्स के मुद्दे पर एक अहम लेख लिखा, जो इंडियन इकनॉमिक सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित हुआ। इस लेख में छिपी हुई बेरोजगारी (Disguised Unemployment) की समस्या को उस वक्त पहचान लिया था, जब यह अवधारणा अर्थशास्त्र की दुनिया में चर्चित भी नहीं हुई थी। इतना ही नहीं, उन्होंने दिग्गज अर्थशास्त्री आर्थर लुइस से करीब तीन दशक पहले ही इस लेख में अर्थव्यवस्था के टू-सेक्टर मॉडल की पहचान भी कर ली थी।

एक अर्थशास्त्री के तौर पर डॉ. अंबेडकर (Dr. Bhim Rao Ambedkar) की सबसे चर्चित किताब ‘द प्रॉब्लम ऑफ द रुपी : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सॉल्यूशन’ साल 1923 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में अंबेडकर ने जिस तरीके से अर्थशास्त्र के बड़े धुरंधर जॉन मेयनॉर्ड कीन्स के विचारों की आलोचना पेश की है, वह इकनॉमिक पॉलिसी और मौद्रिक अर्थशास्त्र पर उनकी जबरदस्त पकड़ का सबूत है।

कीन्स ने करेंसी के लिए गोल्ड एक्सचेंज स्टैंडर्ड की वकालत की थी, जबकि अंबेडकर ने अपनी किताब में गोल्ड स्टैंडर्ड की जबरदस्त पैरवी करते हुए उसे कीमतों की स्थिरता और गरीबों के हित में बताया था।

अपनी इस किताब में अंबेडकर ने न सिर्फ यह समझाया है कि साल 1800 से 1920 के बीच भारतीय करेंसी को किन समस्याओं से जूझना पड़ा, बल्कि इसमें उन्होंने भारत के लिए एक माकूल करेंसी सिस्टम का खाका भी पेश किया था। जानकारों का मानना है कि उन्होंने भारतीय करेंसी सिस्टम का जो खाका पेश किया, उसका रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना में बड़ा योगदान रहा है।

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देश के आर्थिक विकास में महिलाओं के योगदान की अहमियत को हाइलाइट करने का काम भी अंबेडकर ने किया था। महिलाओं को आर्थिक वर्कफोर्स का हिस्सा बनाने के लिए मातृत्व अवकाश जैसी जरूरी अवधारणा को भी डॉ अंबेडकर ने ही कानूनी जामा पहनाया था। श्रमिकों को सरकार की तरफ से इंश्योरेंस दिए जाने और लेबर से जुड़े आंकड़ों के संकलन और प्रकाशन का विचार भी मूल रूप से डॉ अंबेडकर ने दिया था।

आधुनिक भारत का आर्थिक ढांचा विकसित करने में डॉ अंबेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने सिर्फ आर्थिक सिद्धांतों और विश्लेषण के क्षेत्र में ही उल्लेखनीय योगदान नहीं किया, बल्कि आजादी के बाद सरकार का हिस्सा बनकर उन्होंने श्रम कानूनों से लेकर रिवर वैली प्रोजेक्ट्स और देश के तमाम हिस्सों तक बिजली पहुंचाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे के विकास जैसे कई काम किए।

देश में सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल इलेक्ट्रीसिटी अथॉरिटी जैसी अहम संस्थाओं की शुरुआत भी उनके नेतृत्व में हुई थी। देश में बिजली के ढांचे के विकास का खाका 1940 के दशक में उस वक्त तैयार किया गया था, जब डॉ. अंबेडकर (Dr. Bhim Rao Ambedkar) पॉलिसी कमेटी ऑन पब्लिक वर्क्स एंड इलेक्ट्रिक पावर के चेयरमैन हुआ करते थे।

उनका मानना था कि देश को औद्योगिक विकास के रास्ते पर आगे ले जाने के लिए देश के तमाम इलाकों में पर्याप्त और सस्ती बिजली मुहैया कराना जरूरी है और इसके लिए एक सेंट्रलाइज्ड सिस्टम होना चाहिए।

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दशकों पहले उन्होंने ही सुझाव दिया था कि कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) लागत से कम से कम 50 फीसदी ज्यादा होना चाहिए। कृषि क्षेत्र के विकास में वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ-साथ लैंड रिफॉर्म की अहमियत पर भी उन्होंने काफी पहले जोर दिया था। यह एक अर्थशास्त्री के तौर पर उनकी दूरदर्शिता का सुबूत देता है।

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