खास ट्रेनिंग बनाती है Indian Army के जवानों को चट्टान से भी मजबूत, -50 डिग्री सेल्सियस तापमान में डटे हैं सरहदों पर

पूर्वी लद्दाख से लगती चीनी सीमाओं पर डटे करीब 50 हजार भारतीय सेना (Indian Army) जवान बीते कई महीनों से सरहद की पहरेदारी कर रहे हैं। इसके लिए वे बर्फीली सर्दी में अपनी जान की परवाह भी नहीं कर रहे हैं।

Siachen

लद्दाख और सियाचिन जैसे इलाकों में तैनाती से पहले Indian Army के जवानों को हथियार चलाने के अलावा हिम्मत बढ़ाने और सर्दी में मददगार साबित होने उपकरणों के संचालन की ट्रेनिंग भी दी जाती है।

पूर्वी लद्दाख से लगती चीनी सीमाओं पर डटे करीब 50 हजार भारतीय सेना (Indian Army) जवान बीते कई महीनों से सरहद की पहरेदारी कर रहे हैं। इसके लिए वे बर्फीली सर्दी में अपनी जान की परवाह भी नहीं कर रहे हैं। उच्च हिमालयी चौकियों पर सेना और आइटीबीपी के ये जवान शून्य से 15 से लेकर 50 डिग्री सेल्सियस तक नीचे के तापमान में सरहद की रखवाली में पूरी मुस्तैदी से डटे हुए हैं।

वहीं, इस मामले में चीनी फौजी कमजोर साबित हुए हैं। बता दें कि पिछले दिनों यह सूचना मिली कि चीन ने सर्दियों में टिक पाने में नाकाम रहने की सूरत में पूर्वी लद्दाख की वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) से अपने 10 हजार सैनिकों को वापस बुला लिया है। हालांकि आमने-सामने वाले इलाकों में स्थिति पहले जैसी ही है।

जूझना पड़ता है सेहत संबंधी समस्याओं से:

सियाचिन और लद्दाख जैसे सर्द इलाकों में पीने का पानी हासिल करना ही मुश्किल नहीं है, बल्कि वहां तो बोलने में भी कठिनाई आती है। बर्फ और ठंड के सिवाय अत्यधिक ऊंचाई और ऑक्सीजन की कमी एवं हवा के कम सघन होने के कारण भी वहां शरीर ठीक से काम नहीं कर पाता है।

सियाचिन या लद्दाख में बर्फ, तेज हवा और सर्द मौसम से होने वाली समस्याओं का आकलन करने के लिए देश के रक्षा शोध एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने कुछ समय पहले सेना के 15 डॉक्टरों और तीन विज्ञानियों की एक टीम बनाई थी।

टीम ने साल 2012 से 2016 के बीच अध्ययन करके बताया था कि पर्वतारोहियों की तरह सियाचिन और लद्दाख जैसे अन्य बर्फीले इलाकों में तैनात Indian Army के सैनिक भी फ्रॉस्टबाइट से जूझ सकते हैं। फ्रॉस्टबाइट का मतलब यह है कि अगर सैनिक ऐसे बर्फीले मौसम में नंगे हाथों से राइफल के बैरल या टिगर को छू लें तो उन्हें अपना हाथ भी गंवाना पड़ सकता है।

दरअसल, वहां अत्यधिक ठंड से अंगुलियां गल जाती हैं। इसके अलावा कई बार श्वसन तंत्र के जरिये फेफड़ों में संक्रमण से निमोनिया भी हो जाता है। यही वजह है कि इन इलाकों में सैनिकों को पोस्टिंग की अवधि में नहाने और दाढ़ी बनाने की छूट भी नहीं मिलती है। टीम ने यह भी बताया था कि सर्द इलाकों में तैनात सैनिकों के दिल या मस्तिष्क में ब्लड क्लॉटिंग (खून का थक्का जमना) की भी समस्या पैदा हो सकती है।

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यह समस्या फ्रॉस्टबाइट से ज्यादा गंभीर होती है। मैदानी इलाकों के मुकाबले ग्लेशियरों में ब्लड क्लॉटिंग का खतरा सौ गुना ज्यादा होता है। इसमें जान जाने का खतरा सबसे ज्यादा होता है। इतनी विपरीत स्थितियों में ज्यादा दिनों तक रहने से सैनिकों की भूख और नींद भी मरने लगती है। वजन घटने लगता है। याद्दाश्त कमजोर पड़ने लगती है।

इसके कुछ और खतरे भी हो सकते हैं। जैसे ज्यादा ऊंचाई पर लंबे समय तक शून्य से नीचे के तापमान में रहने के कारण जवानों को दिल की धड़कनें तेज होने संबंधी बीमारी हो सकती है। इससे उनके फेफड़ों में पानी भी भर सकता है। लद्दाख, सियाचिन और सिक्किम में कई ऐसे इलाके ऐसे हैं, जहां सैनिकों को बेहद ऊंचाई वाले इलाकों में कम तापमान के अलावा कम वायुमंडलीय दबाव और कम ऑक्सीजन के साथ रहना पड़ता है।

हालांकि, सैनिकों को ऐसी समस्याओं से बचाने के लिए लेह में भारतीय सेना का एक आधुनिक अस्पताल बनाया गया है, जहां ऑक्सीजन की प्रचुर उपलब्धता वाले कई चैंबर मौजूद हैं। बीमार जवानों को वहां लाकर ऐसी दवाइयां भी दी जाती हैं, जिनसे उनके फेफड़ों में कोई बदलाव न होने पाए। यह अस्पताल मूलत: सियाचिन में तैनात सैनिकों के लिए बनाया गया था, पर अब यह लद्दाख में मौजूद सैनिकों की भी मदद कर रहा है।

दी जाती है खास ट्रेनिंग:

लद्दाख और सियाचिन जैसे इलाकों में तैनाती से पहले Indian Army के जवानों को हथियार चलाने के अलावा हिम्मत बढ़ाने और सर्दी में मददगार साबित होने उपकरणों के संचालन की ट्रेनिंग भी दी जाती है। सैन्य नियमों के मुताबिक इन जगहों पर सैनिकों की पोस्टिंग का एक निश्चित कार्यक्रम होता है। जैसे-सियाचिन और लद्दाख में ऊंची जगहों पर भेजने से पहले सैनिकों को बेस कैंप में स्थित सियाचिन बैटल स्कूल में वैज्ञानिक तरीके से एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है।

इसमें जवानों को बर्फीले र्दे पार करने, बर्फ की मोटी दीवारों पर सीधी चढ़ाई करने, हिमस्खलन से जमा हुई बर्फ को साफ करने और आपदा के दौरान बचाव-राहत कार्य चलाने के बारे में प्रशिक्षण दिया जाता है। यदि कोई सैनिक एक बार में इस ट्रेनिंग को पूरा नहीं कर पाता है तो उसे एक महीने की ट्रेनिंग और दी जाती है, ताकि वह लद्दाख या सियाचिन जाने के योग्य हो सके।

ट्रेनिंग के दौरान सैनिकों को बर्फीले स्थानों पर इस्तेमाल में लाए जाने वाले उपकरणों की जानकारी दी जाती है। ये उपकरण इन सैनिकों को हर वक्त अपने पास रखने होते हैं। इनमें खास किस्म के चश्मे होते हैं। ये चश्मे सौ फीसद पराबैगनी प्रतिरोधी होते हैं, ताकि दिन में सूरज चमकने और उसकी चमक बर्फ पर पड़ने के बाद आंखों में जाए तो आंखों की रोशनी जाने का खतरा पैदा नहीं हो। सैनिकों को खास कपड़ों के अलावा एल्युमीनियम अलॉय और पॉलीथिन पैड से बने बेहद मजूबत पिट्ठू-बैग से लैस किया जाता है, जिसमें वे 25 किलोग्राम तक का सामान ढो सकते हैं।

खास तरह के कपड़े और जूते:

सियाचिन में तैनात सैनिक लंबे समय से ऑस्ट्रेलियाई जैकेट और पैंट का इस्तेमाल करते आ रहे हैं। थर्मल कपड़ों से बनी चार परतों वाली इस जैकेट में बत्तख के पंख भरे होते हैं। ये जैकेट और पैंट सैनिकों को तेज हवाओं और मौसम के दूसरे प्रभावों से बचाती हैं। सैनिक सबसे ऊपर जो कोट पहनते हैं उसे स्नो कोट कहते हैं।

इस बार सियाचिन, लेह-लद्दाख और सिक्किम में तैनात होने वाले Indian Army के जवानों के लिए तीन लेयर वाले एक्सट्रीम कोल्ड वेदर क्लोदिंग सिस्टम की भी व्यवस्था की गई है। इन्हें अमेरिका से मंगाया गया है। इस सिस्टम की बाहरी परत गोरटेक्स नामक कपड़े की बनी है। गोरटेक्स वाटरप्रूफ और ब्रीदेबल फैब्रिक होता है। यह तरल पदार्थ जैसे पानी को अंदर नहीं आने देता, मगर भाप को अंदर आने देता है। यह बेहद हल्का होता है।

सैनिकों को बर्फ के नुकसान से बचाने वाले दस्ताने भी मुहैया कराए जाते हैं। इन्हें ऐसे बनाया जाता है, ताकि सैनिक राइफल चला सकें। सियाचिन में तैनात सैनिकों को चार किलोग्राम तक वजन वाले बूट पहनने पड़ते हैं। इनके तलों में कीलें लगी होती हैं। ये खास जुराबों से लैस होते हैं, जो सैनिकों के पैरों को शून्य से 50 डिग्री नीचे के तापमान में सुरक्षित रखते हैं।

इसके अलावा, हथियार के रूप में इंसास राइफल के साथ-साथ एक सैनिकों को रेडियो सेट, बैटरियां और हिमस्खलन में दबे लोगों का पता लगाने में सहायता करने वाले यंत्र, बर्फ काटने वाली कुल्हाड़ी, रस्सी आदि को भी हमेशा साथ रखना पड़ता है।

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