पूरे मैच के दौरान उनकी निगाहे जाकिर को ढूंढ रही थीं लेकिन वो नदारद था। उनके दिमाग में अजीब से ख्याल आ रहे थे। शायद बीमार तो नहीं हो गया या फिर नूरपुरा वालों ने उसे मुखबिर करार दे कर अलग तो नहीं कर दिया।

आशीष ने गौतम को अपना प्लान समझा दिया था। रोज तार के आगे रहने वाले लोग अपना शिनाख्ती कार्ड चेकपोस्ट पर दिखा कर अपने घर जाते थे।

कर्नल शर्मा ने ये जिम्मेदारी स्वाति के सिर पर थोप दी। साथ में तीन लोगों की एक टीम भी उसके हवाले कर दी। वैसे उनके हिसाब से ये सब जरूरी तो था पर उतना नहीं जितना कि फील्ड में आतंकवादियों का एनकाउंटर करना।

चिल्लाती भीड़ के उग्र रूप पर इसका कोई असर नहीं पड़ा था। तीनों ने गाड़ी के अंदर अपने आप को बंद कर लिया। मंजूर ने अपने हाथ सीट के नीचे छुपे हथियारों की तरफ बढ़ाए ही थे कि सुरेश ने उसको इशारे से मना कर दिया।

कार के बंपर पर थोड़ा पानी छिड़क कर खून के चंद धब्बे साफ किए और वापिस आ कर गाड़ी में बैठ गया। लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद आकाश की आंखों से वो दृश्य ओझल नहीं हो पा रहा था।

अयूब के कहने पर गौतम ने अपने सिपाहियों को चारों तरफ तैनात कर दिया था। अयूब का इशारा नजदीक ही एक छोटे से नाले की तरफ था।

एक अनकहा उसूल था वहां। रात के अंधेरे में जंगली जानवरों के अलावा या तो फौजी बाहर रहते थे और या फिर सीमा पार से घुसपैठ की कोशिश करते आतंकवादी। ऐसे में किसी गांव वाले का रात को बाहर निकलना मौत को दावत देने की तरह था।

उस अंधेरी रात में जल्द ही फुरकान उसकी आंखों से दूर हो गया। ऋषभ के दिल में किसी अनहोनी का अंदेशा अब भी था। लाइन ऑफ कंट्रोल पर Indian Army हमेशा मुस्तैद थी। ऐसे में रात को किसी भी तरह की हरकत होती देख कर उनका कार्रवाई करना लाज़िमी था।

अफ़ज़ल बारामुला डिग्री कॉलेज में बीए फर्स्ट ईयर का छात्र था। कई बार दोस्तों के साथ पत्थरबाज़ी में शरीक होता था। मज़ा आता था उसको दोस्तों के साथ नारे लगाने में और पत्थर फेंकने में। पर ये सब करने की वजह शायद उसको खुद मालूम नहीं थी।

अफ़ज़ल बारामुला डिग्री कॉलेज में बीए फर्स्ट ईयर का छात्र था। कई बार दोस्तों के साथ पत्थरबाज़ी में शरीक होता था। मज़ा आता था उसको दोस्तों के साथ नारे लगाने में और पत्थर फेंकने में। पर ये सब करने की वजह शायद उसको खुद मालूम नहीं थी।

दिन भर शाज़िया सिर्फ़ हूजेफ़ा को ख़त्म करवाने का प्लान बनाती। अविनाश नहीं चाहता था कि शाज़िया के घर में एनकाउंटर हो लेकिन शाजिया को तो जैसे कोई भी डर नहीं था। बस एक जुनून था उसके सिर पर।

मेजर भूपेंद्र की एक साल पहले ही उस इलाक़े में पोस्टिंग हुई थी। राष्ट्रीय राइफल्स में अल्फा कंपनी कमांडर। उनकी कंपनी बारामुला और हंडवारा के बीच एक छोटे से गांव तरागपोरा में पिछले कई सालों से तैनात थी।

मेजर भूपेंद्र की एक साल पहले ही उस इलाक़े में पोस्टिंग हुई थी। राष्ट्रीय राइफल्स में अल्फा कंपनी कमांडर। उनकी कंपनी बारामुला और हंडवारा के बीच एक छोटे से गांव तरागपोरा में पिछले कई सालों से तैनात थी।

वो अक्सर इम्तियाज़ को दिया हुआ ईमेल चेक करता है। उसे पता है कि इम्तियाज़ शहीद हो चुका है, पर फिर भी उसके दिल में कहीं एक छोटी सी उम्मीद है और उस छोटी सी उम्मीद के साथ-साथ एक बहुत बड़ा बोझ भी।

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