हस्तक्षेप एपिसोड नंबर 8: 1991 के बाद “Budget 2020” सबसे चुनौतीपूर्ण बजट है

किसी क्रांतिकारी बजट की उम्मीद करना बेमानी है, क्योंकि वित्त मंत्री के पास इतनी गुंजाइश नहीं है कि वो कोई धमाकेदार बजट पेश कर सकें। एक चीज जो वह कर सकती हैं कि कुछ ऐसे बड़े और कड़े कदम उठाएं जिनका असर बेशक फिलहाल ना दिखे लेकिन आगे चलकर उसका फायदा इकॉनमी को मिले।

Budget 2020, Union Budget 2020

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की ओर टिकी हैं सबकी निगाहें।

हस्तक्षेप एपिसोड नंबर 8:-

 1 फरवरी को जब देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण साल 2020 का बजट (Budget 2020) पेश करने उठेंगी तो उनके ऊपर बहुत दबाव होगा। देश की 135 करोड़ आबादी की उम्मीदों का दबाव। इस बजट पर ना सिर्फ पूरे देश की निगाहें टिकी हैं बल्कि दुनिया भर में भी इस बजट को लेकर काफी हद तक उत्सुकता है। इसका कारण बेहद स्पष्ट है। हमारी अर्थव्यवस्था पिछले कुछ सालों से लगातार धीमी पड़ रही है। अब तो कुछ लोग यहां तक कहने लगे हैं कि भारत की इस मंदी का असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है। हालांकि, मैं इस बात से बहुत इत्तेफाक नहीं रखता।

Budget 2020, Union Budget 2020
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की ओर टिकी हैं सबकी निगाहें।

बहरहाल, वैश्विक अर्थव्यवस्था की सेहत पर इसका क्या असर पड़ रहा है, इसको छोड़ भी दें लेकिन ये सच है कि हम मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। इस सप्ताह इकोनॉमिक टाइम्स ने एक स्टोरी प्रकाशित की थी, जिसमें उन्होंने लिखा था कि साल 2020 का बजट (Budget 2020) पिछले एक दशक का सबसे मुश्किल बजट होगा। हालांकि, मैं इससे एक कदम आगे बढ़ कर कहना चाहता हूं कि जब 1991 में भारत का सोना गिरवी रखा हुआ था, हम लोग पूरी तरह बैकफुट पर थे। उस वक्त बतौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह का बजट एक लैंडमार्क बजट था। ये अलग बात है कि 1991 और आज के दौर की तुलना नहीं की जा सकती। उस वक्त हालात बेहद खराब थे। स्थितियां बेहद विषम थीं।

बेशक, आज की तारीख में उस दौर की तरह चुनौती नहीं है लेकिन फिर भी मैं 1991 के बाद साल 2020 के बजट को एक बड़ी चुनौती और एक बड़े अवसर की तरह देखता हूं। या तो हम यहां से दिशा बदलेंगे या फिर भटकाव का शिकार होकर रह जाएंगे। अब सवाल ये है कि फिर संभावना क्या है? तो उम्मीदें अपनी जगह हैं। हम कितना भी चाहें कि वित्त मंत्री खजाना खोल दें। बड़े स्ट्रक्चरल रिफॉर्म्स लाएं। इकॉनमी को स्टीमुलस दें। पर्सनल इनकम टैक्स में कटौती करें। आधारभूत ढांचे पर खर्च बढ़ा दें। महंगाई दर कम करने के प्रयास करें। लेकिन हकीकत ये है कि जब हम आंकड़ों को देखते हैं, देश की मौजूदा आर्थिक सेहत को देखते हैं, तो समझ आता है कि वित्त मंत्री के सामने कितनी दुर्गम, जटिल और मुश्किल चुनौती है। ये देखने वाली बात होगी कि वो इस चुनौतीपूर्ण स्थिति से कैसे निपटती हैं।

अर्थव्यवस्था कितनी दुर्गम, जटिल और मुश्किल स्थिति में है ये कहने के पीछे कारण हैं ये आंकड़े। देश की विकास दर यानी जीडीपी फिलहाल करीब 5 फीसदी है, जो पिछले 11 साल की सबसे कम दर है। प्राइवेट कंजप्शन इस वक्त करीब 6 फीसदी है, 5.8 फीसदी। यह पिछले 7 साल की सबसे कम दर है। निवेश सिर्फ एक फीसदी की दर से बढ़ रहा है। निवेश की ये दर पिछले 17 साल में सबसे कम है। वहीं, मैन्यूफैक्चरिंग ग्रोथ रेट की बात करें तो फिलहाल ये आंकड़ा महज 2 फीसदी है। यह पिछले 15 साल की सबसे कम दर है। एग्रीकल्चर ग्रोथ रेट अभी महज 2.8 फीसदी है, जो पिछले 4 साल की सबसे कम दर है।

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लिहाजा, हमारी अर्थव्यवस्था एक ऐसे जाल में फंसी हुई है कि वित्त मंत्री से बहुत उम्मीदें लगाना वाजिब नहीं होगा। हमें समझना होगा कि आखिर वित्त मंत्री के पास ऐसी कौन सी जादू की छड़ी है, जिससे वो कोई करिश्मा कर देंगी। कोई ऐसा चमत्कार जिससे हमारी सारी समस्याएं पलक झपकते ही ठीक हो जाएं।

स्थिति कितनी खराब है ये जानने के लिए कुछ और बातों पर गौर कर लेते हैं। 2019 की शुरुआत में महंगाई दर 2 फीसदी थी, जो 2019 का दिसंबर आते-आते 7 फीसदी हो गई। मतलब ये कि महंगाई बढ़ने के चलते बैंकों के लिए ब्याज दरें घटाना मुश्किल हो गया है। ब्याज दरें कम नहीं होंगी तो लोगों को सस्ते दर पर लोन नहीं मिल पाएगा। अब सस्ते दर पर लोन नहीं मिलेंगे तो औद्योगिक गतिविधियों में रफ्तार नहीं आएगी। महंगे ब्याज दर से होम लोन या ऑटो लोन की संख्या में इजाफा नहीं होगा। चुनौतियां चहुंओर हैं। ऊपर से लक्ष्य के मुकाबले इस साल टैक्स कलेक्शन में भारी गिरावट आई है। जाहिर तौर पर अर्थव्यवस्था की रफ्तार मंद होने पर टैक्स कलेक्शन में कमी आएगी ही। जिस वक्त टैक्स कलेक्शन के लक्ष्य निर्धारित किए गए उस वक्त हालात आज से कहीं बेहतर थे। लिहाजा, प्रोजेक्शन हाई था।

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अब असल सवाल ये है कि जब खजाने में पैसा ही नहीं आया तो खर्च कहां से करेंगे। चीजें इस कदर इंटरकनेक्टेंड हैं कि नया खर्च नहीं करेंगे तो इकॉनमी को नया बूस्ट नहीं मिलेगा। फिर बात आएगी वित्तीय घाटे की। पिछले वित्त वर्ष में वित्तीय घाटे का लक्ष्य 3.3 फीसदी था, जो इस साल बढ़ कर कम से कम 4 फीसदी तो हो ही जाएगा। पर ज्यादातर लोगों का मानना है कि वित्त मंत्री को बढ़ते वित्तीय घाटे की चिंता फिलहाल नहीं करनी चाहिए। प्राथमिकता ये होनी चाहिए कि किसी भी तरह विकास दर को बढ़ाया जाए।

अभी वक्त उम्मीदों को किनारे छोड़ व्यावहारिक होने का है। ऐसे में एक बोल्ड बजट की उम्मीद करना बेहतर विकल्प है। किसी क्रांतिकारी बजट की उम्मीद करना बेमानी है, क्योंकि वित्त मंत्री के पास इतनी गुंजाइश नहीं है कि वो कोई धमाकेदार बजट पेश कर सकें। एक चीज जो वह कर सकती हैं कि कुछ ऐसे बड़े और कड़े कदम उठाएं जिनका असर बेशक फिलहाल ना दिखे लेकिन आगे चलकर उसका फायदा इकॉनमी को मिले। इससे संदेश बहुत अच्छा जाएगा।

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