बस्तर में बेटियों के सपनों को लगने लगे पर

एक तो हमारे समाज में शिक्षकों का दर्जा ऐसे ही भगवान से भी ऊंचा माना जाता है। इनका कर्म और धर्म ही है अज्ञान के अंधेरे को ज्ञान के आलोक से प्रकाशित करना। पर, मुश्किल हालात में, जान हथेली पर लेकर अपने छात्रों को शिक्षा और सुरक्षा दोनों मुहैया कराने वाले शिक्षक विरले ही मिलते हैं।

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हालात को रोना रोते रहना एक बात है और हालात से लड़ कर सूरत बदलने की कोशिश करना दूसरी। पहली कैटेगरी में ज्यादातर लोग आ जाते हैं, दूसरी वाली कैटेगरी बहुत खास होती है और इसमें जगह बनाने वाले भी। फिर इस कैटेगरी वाले लोग शिक्षक हों तो फिर तो क्या ही कहना।

एक तो हमारे समाज में शिक्षकों का दर्जा ऐसे ही भगवान से भी ऊंचा माना जाता है। इनका कर्म और धर्म ही है अज्ञान के अंधेरे को ज्ञान के आलोक से प्रकाशित करना। पर, मुश्किल हालात में, जान हथेली पर लेकर अपने छात्रों को शिक्षा और सुरक्षा दोनों मुहैया कराने वाले शिक्षक विरले ही मिलते हैं।

हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में ज्ञान की दिव्य रोशनी बिखेरने वाली शिक्षिकाओं की जिन्हें साल 2015 में राज्य सरकार ने उनके साहस और लगन के लिए सम्मानित किया। इनमें कोई ऐसी है जो अपने स्टूडेंट के साथ चौबीसों घंटे इसलिए रही क्योंकि उसके भाई को नक्सलियों ने मार दिया था और उसे सहारे की दरकार थी तो कोई ऐसी है जो अपने स्टूडेंट के बीमार होने पर दिन-रात अस्पताल में उनकी तीमारदारी भी करती है। साथ ही ऐसी शिक्षिका भी हैं जो अपने संघर्ष की कहानी सुनाकर बच्चियों के हौसले बढ़ाती रहती हैं। उन्हें सबक देती हैं कि अंधेरों से दूर रोशनी की एक दुनिया भी है। आज हम आपको ऐसी ही 4 शिक्षिकाओं से रूबरू करवाएंगे-

सुमित्रा सोरी

बस्तर

नक्सल प्रभावित बस्तर के दंतेवाड़ा के कस्तूरबा गांधी विद्यालय में आप शाम 5 बजे जाकर देखिए। आपको बच्चियों की खिलखिलाहट सुनाई देगी। कैंपस में एक तरफ बच्चियां कबड्डी खेलती हुई और चिल्लाकर एक-दूसरे का उत्साह बढ़ाती हुई दिखाई देंगी तो दूसरी तरफ एक-दूसरे की कमर में बांहें डाले लोकनृत्य करती नजर आएंगी। देखकर लगता ही नहीं है कि ये वही दंतेवाड़ा है जो आए दिन नक्सलियों की खूनी करतूतों का गवाह बनता है।

स्कूल की प्रिंसिपल सुमित्रा सोरी बताती हैं कि उनकी कहानी उनकी स्टूडेंट्स के जैसी है। वह दंतेवाड़ा से 10 किलोमीटर दूर फरसपाल गांव में बड़ी हुईं। उनके पिता बहुत गरीब थे, पर बेटी को पढ़ाना चाहते थे। गांव में ऐसे लोग न के बराबर थे जो उनके पिता की तरह सोचते थे। सोरी पुराने दिन याद करते हुए कहती हैं, “मैं तीसरी कक्षा में थी जब मेरी मां ने मुझे पढ़ाई छोड़ खेतों में काम करने के लिए कहा। जब स्कूल का वक्त होता ठीक उसी समय मां मुझे खेत भेज देतीं। मुझे मां से डर लगता था इसलिए ना चाहते हुए भी उनकी बात माननी पड़ती थी। उन्होंने एक साल तक पिताजी को अंधेरे में रखा। एक दिन पिताजी को स्कूल के एक टीचर मिल गए। पिताजी ने उनसे मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा, तब उन्हें पता चला कि मैंने पढ़ाई छोड़ दी है। पिताजी ने पूरे परिवार के खिलाफ जाकर मुझे दोबारा स्कूल भेजा। उस स्कूल में आठवीं तक पढ़ाई करने के बाद मैं जगदलपुर से 15 किलोमीटर दूर धीमरापाल आवासीय विद्यालय में पढ़ने चली गई। वहां जाकर मेरे अंदर कॉन्फिडेंस आया। वहां टीचर्स पढ़ाई के अलावा खेल-कूद, नृत्य और अन्य रचनात्मक गतिविधियों के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करते थे।”

धीमरापाल से 12वीं करने के दो साल बाद 1993 में सोरी को दंतेवाड़ा के कातेकल्यान में शिक्षक की नौकरी मिल गई। 2008 में बतौर प्रिंसिपल दंतेवाड़ा के उसी कस्तूरबा गांधी विद्यालय में नियुक्ति हुई।

बस्तर

सोरी और अन्य तीन शिक्षक स्कूल टाइम के बाद भी काम करते हैं। वे बच्चों को एक्सट्रा एक्टिविटीज़ कराते हैं, जैसे- खेल-कूद, नृत्य, संगीत आदि। 6 से 7 बजे के बीच स्पेशल कोचिंग क्लासेज भी बच्चों को दी जाती है। हॉस्टल में टीवी पर हिन्दी फिल्में भी दिखाई जाती हैं और उन फिल्मों के बारे में आपस में चर्चाएं भी करवाई जाती हैं। स्कूल में कंप्यूटर-रूम भी है जहां बच्चे कंप्यूटर सीखते हैं। दीवारों पर देश के महान शख्सियतों के फोटो लगे हैं। सोरी कहती हैं, बच्चियों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय कल्पना चावला हैं। वे उनकी तरह ही आसमान छूना चाहती हैं। सोरी आगे बताती हैं, शुरू में बच्चियों को स्कूल तक लाना और हॉस्टल में रखना बहुत मुश्किल होता था। माता-पिता भी राजी नहीं होते थे और बच्चियां भी स्कूल में नहीं रहना चाहती थीं। लेकिन अब काफी बदलाव आ गया है। अब सिर्फ बच्चियों के माता-पिता को ही समझाना पड़ता है।

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बस्तर

उन्होंने मीना-मंच बनाया है। इसका काम है बच्चियों के माता-पिता को बच्चियों को स्कूल भेजने के लिए कन्विंस करना। पैरेंट्स को समझाने और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करने की खातिर हर साल जनवरी की शुरूआत में लड़कियां जंगलों में कई किलोमीटर चलकर गांवों तक जाती हैं और नुक्कड़-नाटक करती हैं। वापस आकर टीचर्स को उन पैरेंट्स के बारे में बताती हैं, जो अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए रजामंद नहीं हुए। अगले चरण में टीरस् खुद वहां जाकर ऐसे पैरेंट्स को समझाने की कोशिश करते हैं।

सोरी कहती हैं, 10 साल पहले स्कूल में जितनी लड़कियां आती थीं आज संख्या उससे दोगुनी हो गई है।

विजय लक्ष्मी सेठिया

बस्तर

बच्चे जब भी पढ़ाई-लिखाई से बोर हो जाते हैं तो वे उनसे एक ही कहानी बार-बार सुनाने को कहते हैं। उनकी खुद की पढ़ाई, संघर्ष और अनुभव की कहानी। विजय लक्ष्मी सेठिया बताती हैं कि वह अपने दो भाइयों के साथ बछेली में बड़ी हुईं। उनके पिता ने उन्हें कस्बे के एकमात्र प्राइवेट स्कूल में पढ़ने भेजा। विजय लक्ष्मी को पढ़ना और बच्चों का साथ बहुत अच्छा लगता था। इसलिए वह स्कूल से आने के बाद बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थीं। पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि कॉलेज की पढ़ाई करा सकें। इसलिए सेठिया ने ट्यूशन पढ़ाकर जो पैसे बचाए थे उससे कॉलेज की पढ़ाई पूरी की। आज वह बायोलॉजी से बीए, बॉटनी से एमएससी और इंग्लिश से एमए हैं। इनकी कहानी से प्रभावित स्टूडेंट्स भी उन्हीं की तरह पढ़ना चाहती हैं।

सेठिया 2013 से पोर्ता केबिन आवासीय विद्यालय में कक्षा 6 से 8 तक सभी विषय पढ़ा रही हैं। यह एक आवासीय सेकेंडरी-स्कूल है जो दंतेवाड़ा से 15 किलोमीटर दूर चितालुर गांव में है। इस स्कूल में करीब 300 बच्चियां हैं, जिनमें ज्यादातर जंगलों में बसे हुए गांवों से हैं, जो हर रोज नक्सल और गरीबी जैसी समस्याओं से लड़कर स्कूल आती हैं। ये पढ़ाई को लेकर बहुत सजग हैं। लड़कियां अपने गांव छोड़कर यहां आती हैं क्योंकि यहां वो सुरक्षित महसूस करती हैं। हर रोज उनके घर के आस-पास जैसा हिंसक माहौल रहता है, उससे दूर यहां उन्हें सुरक्षित माहौल मिलता है। स्कूल के चारों तरफ कांटेदार तार लगे हैं ताकि कोई आसानी से अंदर नहीं आने पाए। स्कूल कैंपस में बच्चे वालीबॉल खेलते हैं। क्लास-रूम और छात्रावास में जरूरत की कमोबेश की सभी चीजें हैं। कुर्सी, टेबल, बेड सबकुछ करीने से रखा है। सेठिया कहती हैं, “हमारे पास केवल मूलभूत सुविधाएं ही हैं। लेकिन उससे कोई परेशानी नहीं है। बच्चे एक-साथ खाते हैं, एक-साथ खेलते हैं, एक-साथ पढ़ते हैं। हमारा उद्देश्य उनके अंदर एकता की भावना को विकसित करना है। बच्चे स्कूल कॉम्प्टीशंस में हिस्सा लेते हैं और अच्छा प्रदर्शन करते हैं। हां, पर कभी-कभी जिला-स्तरीय और राज्य-स्तरीय प्रतियोगिताओं में उनका कॉन्फिडेंस लूज हो जाता है। दंतेवाड़ा से बाहर वे लोगों से घुलने-मिलने में हिचकिचाते हैं। पर हम उनका हौसला बढ़ाते हैं, उन्हें हमेशा कहते हैं कि वे किसी से कम नहीं हैं।”

सेठिया, बच्चियों को पीरियड्स और पर्सनल-हाइजीन के बारे में भी बताती हैं। कहती हैं, मैंने हर बच्ची को बता रखा है कि ऐसी कोई भी समस्या हो तो बेझिझक मुझसे बात करें। मेरा उद्देश्य लड़कियों को पीरियड्स और हाइजीन के बारे में जागरूक करना भी है। ताकि वे अपने गांव जाकर और लोगों को भी जागरूक करें और अपनी मां से इस बारे में खुलकर बात कर सकें।”

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प्रेमा कुजुर

बस्तर

2013 में जब उन्होंने अपने घर अंबिकापुर के नजदीक एक प्राइवेट स्कूल की नौकरी छोड़कर सुकमा में रहने और पढ़ाने का फैसला किया तो सबने यही सवाल किया कि राज्य के सबसे खतरनाक इलाके में क्यों गईं? उनके पास कोई जवाब नहीं था। बस इतना कह पाईं कि ड्यूटी है, सब ऐसे इलाकों में पढ़ाने से मना करेंगे तो यहां के बच्चों को कौन पढ़ाएगा, वे कैसे पढ़ पाएंगे।

प्रेमा कुजुर अंबिकापुर में पली-बढ़ी हैं जो 10 साल पहले माओवादियों का इलाका हुआ करता था। अब वे वहां से जा चुके हैं। लेकिन प्रेमा एक-बार फिर नक्सलियों के गढ़ सुकमा आ गईं। यह इलाका उनके घर से 22 किलोमीटर की दूरी पर है। सुकमा के बालिका आवासीय विद्यालय में वह एक से आठवीं तक की बच्चियों को पढ़ाती हैं। इस स्कूल में पांच सौ से भी अधिक स्टूडेंट्स हैं। प्रेमा सिर्फ एक टीचर ही नहीं, मेंटॉर भी हैं जो शाम को सभीं शिक्षकों के चले जाने के बाद भी बच्चों के साथ रहती हैं, उनका ख्याल रखती हैं। प्रेमा बताती हैं कि कभी-कभी लड़कियों के सवालों का जवाब देना उनके लिए मुश्किल हो जाता है जब वे पूछती हैं कि छुट्टियों में घर जाने पर नक्सली आते हैं और उन्हें अपनी मीटिंग्स में आने को कहते हैं। ऐसे में उन्हें क्या करना चाहिए? वह जवाब में बस इतना कहती हैं कि जो भी स्कूल में सिखाया जाता है उस पर अमल करो। प्रेमा ने सुकमा में काफी मुश्किलों का सामना किया है। बच्चियों के बीमार होने पर कई-कई रातें जगदलपुर और रायपुर के सरकारी-अस्पतालों में उनकी देख-भाल करने में बिताई हैं।

एक किस्से का जिक्र करते हुए प्रेमा कहती हैं, “वह हमारे स्कूल की होनहार छात्राओं में एक थी। एक बार छुट्टियों के बाद जब वह वापस स्कूल आई तो बिल्कुल बदली सी लगी। न बच्चों के साथ खेलती थी, न ही किसी से बात करती थी। मुझे पता था कुछ तो ठीक नहीं है उसके साथ। पर वो किसी से बात ही नहीं कर रही थी। फिर मैंने उसके साथ दिन-रात रहने का फैसला किया। मैं उसे बताना चाहती थी कि वह अकेली नहीं है। उसे सुनने वाला कोई उसके साथ है। करीब एक हफ्ते बाद उसने मुझसे बात की। उसने बताया कि चिंतलनाग में नक्सलियों ने उसके भाई को मार दिया है। उसे डर है कि वे उसके मां-बाप को भी न मार दें। इसलिए वह वापस नहीं आना चाहती थी। मैंने उससे कहा कि अपने परिवार को वहां से दूर ले जाने का तुम्हारे पास एक ही रास्ता है, तुम अच्छी तरह पढ़ाई पूरी कर कमाने लगो। धीरे-धीरे वह नॉर्मल होने लगी।”

 राम कुमारी सेन

छत्तीसगढ़ के सुदूर दक्षिणी छोर पर बसे कोंटा पहुंचने के दो रास्ते हैं। पहला, सुकमा हेडक्वार्टर से सीधा हाइवे के रास्ते, जहां से कोंटा 70 किलोमीटर है। यह तीन घंटे का सफर है। दूसरा, ओडिशा के मल्कानगिरि से 100 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद सबरी नदी में नाव से तैरकर।

रायपुर जिले के शीरपुर की रहने वाली राम कुमारी सेन पहली बार कोंटा के कस्तूरबा गांधी विद्यालय नाव से आई थीं। उनके घरवालों ने उन्हें ऐसी खतरनाक जगह नौकरी करने से मना किया था। पर वह यह नौकरी हाथ से कैसे जाने देतीं। सेन कहती हैं, “यह मेरे लिए सबसे चैलेंजिंग असाइनमेंट है, जिसे करके बहुत संतुष्टि मिलती है।”

जिस जगह से सेन ताल्लुक रखती हैं वहां नक्सल जैसी समस्या तो नहीं थी पर लड़कियों का स्कूल जाना इतना आसान भी नहीं था। उन्होंने 10वीं तक पढ़ाई की पर पैसे की कमी के कारण एक साल ड्रॉप करना पड़ा। छोटी-मोटी नौकरियां कर किसी तरह एक साल में कुछ पैसे इकट्ठे किए जिससे किसी तरह 12वीं कर पाईं। फिर लोकल हेल्थ-वर्कर के तौर पर काम करके कुछ पैसे जुटाए और केमिस्ट्री से एमएससी की पढ़ाई पूरी की।

जिस स्कूल में वो पढ़ाती हैं वहां भी बाकी स्कूलों की तरह लाइब्रेरी, कंप्यूटर-रूम जैसी सुविधाएं हैं। स्टूडेंट्स को एक्सट्रा कोचिंग-क्लासेज भी दी जाती हैं। पर जो बात इसे अलग बनाती है, वह है यहां के बच्चों की विविधता। क्योंकि कोंटा आंध्रप्रदेश और ओडिशा की सीमाओं से सटा है, इसलिए यहां के बच्चे विभिन्न संस्कृतियों से हैं, अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं। पर वे नक्सलवाद के डर और गरीबी की वजह से एक हैं। 6वीं से 8वीं तक के इस स्कूल में 65 स्टूडेंट्स और तीन शिक्षक हैं। सेन ने 2011 में यह स्कूल ज्वाइन किया था। वह अपने स्टूडेंट्स से कहती हैं कि कुछ भी हो पढ़ाई मत छोड़ना, ताकि आगे चलकर अच्छी नौकरी मिल सके। हम मुख्यधारा से अभी भी दूर हैं। यदि गरीबी के दुष्चक्र से निकलना है तो यह जरूरी है कि पढ़ाई पूरी कर अच्छी नौकरी करें और पैसे कमाएं।

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वह बताती हैं, इतना इंटिरियर में होने की वजह से पैरेंट्स को समझाना बहुत मुश्किल होता है कि वे बच्चियों को स्कूल भेजें। उनका कहना होता है कि स्कूल भेजकर क्या करेंगे, जब पढ़ाई करने के बाद भी उन्हें घर के काम ही करने हैं। इसलिए हम उन्हें बताते हैं कि स्कूल में लड़कियों को घर के काम भी सिखाए जाते हैं।

स्कूल में एक कमरा है जहां अचार तथा सूखे मेवों से भरे जार और कढ़ाई किए गए कपड़े रखे जाते हैं। यह सब ये बच्चियां अपने हाथों से बनाती हैं। वे गांव जाकर अपने माता-पिता को यह बताती हैं कि कैसे इन चीजों को और बेहतर तरीके से बनाया जाए। जिससे उनकी आमदनी बढ़ाने में मदद मिले।

वह तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह और अभिनेत्री करीना कपूर से जब पुरस्कार लेने गई थीं तब अपनी दो स्टूडेंट्स को भी साथ ले गई थीं। कई लोगों ने उनसे पूछा कि वह कहां से आई हैं। उन्होंने गर्व से कहा कि हम बस्तर से आए हैं।

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