भारत में सामाजिक सुधार के जनक थे देश के पहले सत्याग्रही

Acharya Vinoba Bhave

Acharya Vinoba Bhave Birth Special:  “भारत में रहने वाला हर शख्स बैल को हासिल करना चाहता है, लेकिन गाय की सेवा करने से कतराता है। भले ही वो धर्म-कर्म के लिए गाय की पूजा करने का दिखावा करता हो, लेकिन बात जब दूध की होती है तो वो सिर्फ भैंस का ही सम्मान करता है। हमारे देश के लोग चाहते हैं उनकी मां भैंस की तरह हो और पिता बैल की तरह। लोगों की ये सोच तो ठीक है लेकिन भगवान को ये मंजूर नहीं है।“

Acharya Vinoba Bhave

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जीवन-परिचय

उपरोक्त विचार महान स्वतंत्रा सेनानी विनायक नरहरि भावे जी (Acharya Vinoba Bhave) का है। ये वही भावे हैं जो अपनी विद्वता के कारण आचार्य की उपाधी अर्जित की। आचार्य विनोदा भावे जितने समर्पित अपने धर्म के प्रति थे उतने ही उतावले देश की स्वाधिनता के लिए थे। देश की आजादी की लड़ाई में अहिंसात्मक रास्ता अपनाने वाले विनोदा भावे की गिनती महात्मा गांधी के परम शिष्यों में होती है। आचार्य विनोदा भावे गांधी जी के बताए रास्ते पर चलकर अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र निर्माण के लिए समर्पित कर दिया। आचार्य विनोदा भावे की पहचान एक समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु के तौर पर होती है। वो आजीवन देश सेवा और गरीबों के उत्थान में लगे रहे। विनोदा भावे की पहचान ‘भूदान आंदोलन’ के संचालक के रूप में भी होती है।

प्रारंभिक जीवन

विनायक भावे (Acharya Vinoba Bhave) का जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के गगोड़े नामक गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। विनायक के पिता जी नरहरी शम्भू राव की गिनती उस समय के अच्छे बुनकरों में होती थी, जो गुजरात में काम करते थे। विनायक भावे की माता रुक्मणि देवी धार्मिक प्रवृति की महिला थीं। शायद यही कारण था कि विनायक अपने माता जी के ज्यादा करीब थे और महज बाल्यावस्था में ही विनायक ने संपूर्ण भगवतगीता ग्रंथ का अध्ययन कर उसके सभी सारों को आत्मसात कर लिया। पढ़ाई के दौरान विनायक भावे की रूचि सबसे अधिक गणित और विज्ञान विषयों में थी। वो अक्सर कुछ ना कुछ नया आविष्कार करने की कोशिश में लगे रहते थे। आजादी से पहले भारत में रंगों को आयात होता था। भावे जी को ये बात ठीक नहीं लगती थी और वो कई दिनों तक रंगों की खोज करते रहे। उनका मकसद भारत को आत्मनिर्भर बनाना था। विनोदा भावे (Acharya Vinoba Bhave) जब इंटरमीडिएट में थे तब बनारस के हिन्दु विश्वविद्यालय में महात्मा गांधी ने जन चेतना का आह्वान किया था। विनायक भावे ने अखबार में गांधी जी के उस भाषण को पढ़ा और इतने प्रभावित हुए कि अपनी इंटर की परीक्षा छोड़कर गांधी जी को एक पत्र लिख डाला। गांधी जी ने भी विनायक भावे को जवाबी पत्र भेजकर उन्हें अहमदाबाद मिलने के लिए बुलाया। गांधी जी से भावे की पहली मुलाकात 7 जून 1916 को अहमदाबाद में हुई। इस मुलाकात का उनपर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई त्यागकर गांधी जी के साथ अहिंसात्मक आंदोलन में शरीक हो गए।

Acharya Vinoba Bhave

आजादी मिलने के पहले से ही सचिवालय में करने लगे काम, रविवार को भी पहुंच जाते थे ऑफिस

राजनीतिक और सामाजिक भागीदीरी

अहमदाबाद में गांधी जी से मुलाकात के बाद विनायक भावे (Acharya Vinoba Bhave) ने उन्हें अपना आध्यात्मिक और राजनीतिक गुरु बना लिया और उनके साथ ही आश्रम में रहने लगे। इस दौरान विनायक भावे आश्रम में होने वाली तमाम गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे और देखते ही देखते गांधी जी के करीबियों में से एक हो गए। इस प्रवास के दौरान आश्रम के ही एक सदस्य मामा फाड़के ने उनको विनोबा नाम से संबोधित करना किया। मराठी में ‘विनोबा’ का अर्थ होता है ‘अति सम्मानित व्यक्ति’। बस यहीं से विनायक भावे ‘विनोबा भावे’ के नाम से पुकारे जाने लगे।

विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) गांधी जी के निर्देशानुसार 8 अप्रैल 1921 को वर्धा चले गए। यहां पर उन्हें गांधी आश्रम को संचालित करने का काम दिया गया। वर्धा में आकर उन्होंने एक ‘महाराष्ट्र धर्म’ नामक मराठी पत्रिका निकालनी शुरू कर दी थी। इस पत्रिका में वो गांधी जी के विचारों को लिखने लगे और लोगों को स्वतंत्रा आंदोलन के लिए प्रेरित करने लगे। इस बात से तत्कालिन ब्रिटिश शासन काफी भड़क गया और विनोबा भावे को 6 महीने के लिए महाराष्ट्र के धुलिया जेल में डाल दिया। यहीं पर विनोबा भावे ने कैदियों को मराठी में ‘भगवत गीता’ का अनुवाद किया। जेल से निकलने के बाद स्वाधिनता की उनकी इच्छा और प्रबल हो गई और गांधी जी के सभी आंदोलनों का हिस्सा बनने लगे। उनके इसी इच्छाशक्ति को देखने के बाद 5 अक्टूबर 1940 को गांधी जी ने देश के सामने विनोबा भावे का परिचय कराया और उन्हें देश का ‘पहला सत्याग्रही’ का कहा।

भारत की स्वतंत्रा के बाद देश में व्याप्त सामाजित कुरुतियों को सुधारने के लिए विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) काम करने लगे। अपने इसी मिशन के दौरान उनकी मुलाकात आंध्र प्रदेश के पोचमपल्ली गांव के रहने वाले हरिजनों से हुई। इनके पास जीविकोपार्जन करने का कोई साधन नहीं था। तदुपरान्त उन्होंने स्थानीय जमींदारों से अपनी भूमि गरीबों में दान करने का अनुरोध किया। जिसका असर वहां के रामचंद्र रेड्डी नामक जमींदार पर पड़ा और उसने अपनी अधिकांश जमीन इन गरीबों में बांट दी। यहीं से आचार्य विनोबा भावे का भूदान आंदोलन शुरू हो गया। इस आंदोलन के लिए विनोबा भावे ने अपने 59 किलोमीटर के सफर में देश के चप्पे-चप्पे का दौरा किया। इसका असर ये हुआ कि उत्तर प्रदेश और बिहार में भारी पैमाने पर भूदान किया गया। बाद में भारत सरकार ने भूदान कानून बनाकर जमींदारों की जमीने जरूरतमंदों में बांटने का काम किया। इस आंदोलन के असर के कारण करीब 23 लाख एकड़ भूमि गरीबों में बांटी गई और पूरे विश्व ने उनके इस कार्य की प्रशंसा की। आचार्य विनोबा भावे को भारत में सामाजिक सरोकार की शुरुआत करने के लिए 1958 में अंतरर्राष्ट्रीय ‘रमन मैग्सेसे पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया।

भूदान आंदोलन के बाद विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) ने महिलाओं के सामाजिक उत्थान के लिए काम करना शुरू किया। महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्होंने 1959 में ‘ब्रह्मा विद्या मंदिर’ की स्थापना की। भावे देश में लगातार स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देते रहे। वो लोगों से लगातार अपील करते रहे कि चकाचौंध की दुनिया छोड़ कर हमें सादगी का जीवन अपनाना चाहिए।

 

मानव शरीर का त्याग

नवंबर 1982 में विनोबा भावे अत्यधिक बीमार पड़ गए। लगातार हो रहे शारीरिक कष्ट से परेशान होकर उन्होंने अपने जीवन को त्यागने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने भोजन और दवाईयों का त्याग कर इच्छा मृत्यु को प्राप्त किया। अंतत: 15 नवंबर 1982 को देश के सबसे बड़े समाज सुधारक भारत रत्न आचार्य विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) ने मानव शरीर त्यागकर मोक्ष की प्राप्ति की। भारत सरकार ने 1983 में आचार्य विनोबा भावे को मरणोपरान्त देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा।

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