सिर्फ बंदूक नहीं, कश्मीर में राजनैतिक सूझ और बातचीत भी जरूरी

समय है बंदूक और बातचीत दोनों पर ध्यान रखने का। अगर हम सिर्फ बंदूक की भाषा का इस्तेमाल करेंगे तो यह भी एक तरह से पाकिस्तान के इरादों को कामयाब करने जैसा होगा।

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पुलवामा हमले के बाद देशभर में आतंकवाद और कश्मीर समस्या को लेकर चर्चा गर्माने लगी है। ज्यादातर लोग बदले की कार्रवाई की मांग कर रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसके स्थायी समाधान पर जोर दे रहे हैं। इस पर जम्मू कश्मीर के पूर्व मंत्री और पीडीपी नेता नईम अख्तर इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जम्मू कश्मीर में सुरक्षाबलों पर हुए अब तक सबसे बड़े हमले से पूरी दुनिया सकते में है। इसको लेकर जो नाराजगी और गुस्सा दिख रहा है वह अभूतपूर्व है क्योंकि हमले में शहीद हुए जवान देश के तमाम अलग-अलग राज्यों से थे। लिहाजा, बदले की कार्रवाई की मांग जोर पकड़ने लगी।

नईम अख्तर आगे लिखते हैं कि ऐसे वक्त में जब देश आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए पोलिटिकल और मिलिट्री लीडरशिप की तरफ देख रहा है, तो इस बात की अनदेखी की जा रही है कि इसका कश्मीर पर क्या असर होगा। ना ही उन हालातों पर ध्यान देने की कोशिश की गई है जिसके परिणामस्वरूप इतना बड़ा हमला हुआ। देश के अलग-अलग इलाकों में आक्रोशित भीड़ का शिकार बनने वाले कश्मीरी छात्रों को बचाने के लिए नेताओं और सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स की कोशिशों को छोड़ दें तो मौजूदा नैरेटिव में कश्मीर को लेकर दृष्टिकोण नदारद है।

नईम अख्तर सवाल कर रहे हैं कि एक ऐसा सूबा जो आज़ादी के बाद से कभी स्थिर नहीं रहा, जो 3 दशकों से लगातार हिंसा झेल रहा है, वहां के लिए 14 फरवरी, 2019 की घटना अलग कैसे हो गई? करीब 25 साल पहले इसी हाइवे पर स्थित बिजबेहरा में 43 सिविलियन मारे गए थे। लेकिन CRPF पर हमला इसके संदर्भ और हताहत जवानों की संख्या के लिहाज से अलग है।

उधर, कश्मीरी युवाओं की गतिविधियों में जिस तरीके से बदलाव आ रहा है, वो कतई ठीक नहीं। पहले विरोध प्रदर्शनों से पत्थरबाजी तक का सफर तय किया और अब डायनामाइट में तब्दील हो रहे हैं। ये सच है कि इन सब में पाकिस्तान की बहुत अहम भूमिका है लेकिन समस्या तो हमारी है।

दूसरी और महत्वपूर्ण बात, जब मीरवाइज मौलवी फारूक की हत्या के बाद शोक व्यक्त करने वाले दर्जनों नागरिक मारे गए, तो देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने माफी मांगी और यही वो वक्त था जब हजारों कश्मीरी युवाओं ने देश के खिलाफ हथियार उठा लिए। पंडितों और कई मुसलमानों को भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। सुरक्षा बलों और आतंकवादियों ने तो जो किया वो किया, पर देश के लिए कश्मीर का हर इंसान अपना था। उनके प्रति प्रेम और अपनत्व की भावना थी, जिसकी वजह से अच्छे रिश्ते बन सके। पर आज एक घटना हर कश्मीरी को बदनाम करने और उसका अपमान करने के लिए पर्याप्त हो गई है।

राजनेताओं और रक्षा बलों की भूमिका जैसे आपस में बदली गई सी लगती है। सीआरपीएफ की बस को उड़ाने के बाद पिंगलेन गांव में सुरक्षाबलों द्वारा किया गया ऑपरेशन भी एक मामला है, जिसमें पाकिस्तानी मास्टरमाइंड कामरान मारा गया। बेशक इस हमले के बाद बहुत आक्रोश था, लेकिन सुरक्षाबलों ने अद्भुत प्रतिबद्धता का परिचय दिया। उन्होंने कभी भी अपने फैसलों या नागरिकों को बचाने की अपनी ड्यूटी को प्रभावित नहीं होने दिया।

राजनेताओं और सेना के दृष्टिकोण में अंतर साफ दिखाई देता है। कुछ राजनीतिज्ञ जैसे मेघालय के गवर्नर का बयान, जिससे केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने नाइत्तेफाकी जताते हुए कहा कि सरकार, राज्यपाल के विचारों का समर्थन नहीं करती है।

हाल के दिनों में कश्मीर में सेवा देने वाले कमोबेश सेना के सभी शीर्ष कमांडरों ने कहा है कि कश्मीर में संघर्ष के सैन्य पहलुओं को समझ कर उसके अनुरूप कार्रवाई की गई है। अब यह एक राजनीतिक मुद्दा है, जिसे लोगों तक पहुंचकर राजनीतिक ढंग से सुलझाया जाना चाहिए। यहां तक ​​कि चिनार कोर के पिछले कमांडर जनरल ए के भट्ट और उनसे पहले, सर्जिकल स्ट्राइक का नेतृत्व करने वाले सेना के कमांडर जनरल डी एस हुड्डा ने भी लगातार राजनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की सिफारिश की है। लेकिन राजनेता सुरक्षा बलों को जिम्मेदारी वापस दे देते हैं।

इससे जहां एक तरफ बौद्धिष्ट लेह और हिंदू जम्मू अलग हो जाता है और स्थानीय लोगों को उनकी पहचान देता है, वहीं कश्मीर के मुसलमानों का भारत से अलग-थलग होने का खतरा भी और अधिक बढ़ जाता है।

तो समय है बंदूक और बातचीत दोनों पर ध्यान रखने का। अगर हम सिर्फ बंदूक की भाषा का इस्तेमाल करेंगे तो यह भी एक तरह से पाकिस्तान के इरादों को कामयाब करने जैसा होगा।

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