अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य को अलंकृत करने वाले महान समीक्षक रामचंद्र शुक्ल

Ram Chandra Shukla

आलोचना एक सुपरिचित विधा है। यह किसी रचना विशेष के मर्म तक पहुंचने वाले रास्ते की खोत तक सीमित नहीं रहती बल्कि मिलती जुलती दूसरी रचनाओं से तुलना करते हुए कुछ सामान्य सत्यों तक पहुंचती है। इन्हीं सत्यों को अनुशासन, परंपरा, नियम, सिद्धांत या मानदंड के रूप में सभी जानते समझते हैं। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आचार्य रामचंद्र शुक्ल (Ram Chandra Shukla) से हिंदी सैद्धांतिक समीक्षा का अविच्छिन्न प्रवाह प्रारंभ हुआ। सैद्धांतिक समीक्षा में साहित्य शास्त्र के सिद्धांतों और मानदंडों का सूक्ष्म विवेचन होता है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि अमुक सिद्धांत साहित्य, पाठक और लोक के लिए कहां तक प्रयोजनीय है।

Ram Chandra Shukla

आचार्य रामचंद्र शुक्ल (Ram Chandra Shukla) का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना गांव में 4 अक्टूबर 1844 को हुआ था। शुक्ल जी के पिता का नाम चंद्रबली शुक्ल था और वो मिर्जापुर के सदर कानूनगो थे। यही कारण था कि उनका पूरा परिवार इनके जन्म के कुछ वर्षों बाद ही मिर्जापुर में आकर रहने लगा। लेकिन 9 वर्ष की उम्र में ही अनकी मां का देहांत हो गया। मिर्जापुर में रहकर ही शुक्ल जी की शिक्षा-दीक्षा पूरी हुई और जैसे तैसे उन्होंने एफ. ए की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। शुक्ल जी के पिता चाहते थे कि वो कचहरी में जाकर काम सीखें लेकिन शुक्ल जी उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे। पढ़ाई के लिए पुत्र का समर्पण देखकर उनके पिता ने उन्हें इलाहाबाद में वकालत पढ़ने के लिए भेज दिया। लेकिन शुक्ल जी की रूचि वकालत में ना होकर साहित्य में थी। शुक्ल जी मिर्जापुर में ही एक मिशन स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू कर दिया और यही ये वक्त था जब उनकी लेखनी तत्कालिन पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी और धीरे-धीरे शुक्ल जी के ज्ञानसागर की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी।

आचार्य शुक्ल (Ram Chandra Shukla) ने जब समीक्षा की दुनिया में कदम रखा, उस समय लेखन में अनेक रचनाकार सक्रिय थे, परंतु समीक्षा के क्षेत्र में स्थिति अलग थी। शायद इसी स्थिति ने आचार्य शुक्ल को समीक्षा के पैमानों की तरफ सोचने के लिए प्रेरित किया होगा। आचार्य शुक्ल ने अपने पूर्ववर्ती साहित्य चिंतकों की दृष्टियों का समाहार कर एक नई आलोचना दृष्टि का निर्माण किया जो साहित्य मे आए बदलाव के अनुकूल और अधिक पूर्ण थी। उन्होंने आलोचना को इतिहास की परंपरा में रखकर देखा। वे अपने काल की जरूरत और पूर्व प्रचलित मान्यताओं को समझते थे। काव्य समीक्षा की एक पद्धति पर रीतिकाल के साहित्य का असर था तो दूसरी और महावीर प्रसाद द्विवेदी का, जहां कविता का रूप सरलीकृत परिभाषा जैसा था। इनमें टकराते हुए शुक्ल जी ने काव्य सिद्धांत के चरित्र की जटिलता को ठीक ढंग से विश्लेषित किया।

हिंदी साहित्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठिक आलोचक पंडित रामचंद्र शुक्ल (Ram Chandra Shukla) के गांभीर्य और बहुआयामी व्यक्तित्व एंव कृतित्व का हिंदी साहित्य हमेशा आभारी रहेगा। हिंदी साहित्य और आलोचना के माध्यम से आचार्य शुक्ल ने तेजी से क्षरित हो रहे मानवीय मूल्यों को बल्कि स्वंय मानव को बचाने की कोशिश की है। तथाकथित विकास के इस दौर में मनुष्य को मनुष्य रूप में बचाए रहने का साहित्यिक प्रयास प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से शुक्ल जी की आलोचना करती है और इसी अर्थ में इसकी सार्थकता भी है एवं प्रासंगिकता भी।

आचार्य शुक्ल (Ram Chandra Shukla) की प्रतिभा बहुआयामी थी, जिन्होंने उनके आलोचकीय व्यक्तित्व को प्रखरता प्रदान की। उनकी आलोचकीय तैयारी बहुत गंभीर और जबर्दस्त थी। उन्होंने शब्दकोश का संपादन किया, हिंदी साहित्य में व्यावहारिक और सैद्धांतिक आलोचना, लेखन की नींव डाली। संस्कृत काव्यशास्त्र की नई और युगानुरूप व्याख्या की और हिंदी साहित्य का पहली बार व्यवस्थित और वैज्ञानिक ढंग से इतिहास लिखा। कहना न होगा कि ये सारे पहलू परस्पर पूरक हैं। हिंदी साहित्य का कोई दूसरा आलोचक ऐसा नहीं है जो एक साथ इतने मोर्चों पर सक्रिय रहा हो।

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आचार्य शुक्ल (Ram Chandra Shukla) के अनुसार, मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसका अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता क्या किसी का प्रयोजन और विकास होता है। उनका यह उद्धरण उनके जीवनदर्शन और साहित्य दर्शन का मूलाधार है। इसमें लोक, जीवन और साहित्य का वस्तुगत अंत:संबंध सूत्रबद्ध है।

शुक्ल जी (Ram Chandra Shukla) के जीवन और जगत संबंधी दृष्टिकोण की तरह उनका साहित्यिक दृष्टिकोण भी वैज्ञानिक है। यह अकारण नहीं है, उन्होंने ‘हेवेल के द रिडल्स ऑफ यूनिवर्स’ का विश्व प्रपंच के नाम से हिंदी अनुवाद किया और उसकी लंबी भूमिका लिखी। विज्ञान के कारण ही उनकी चिंतन पद्धति द्वंद्वात्मक हुई। उनका कोई साहित्य सिद्धान्त ऐसा नहीं है, जो उनकी इस मूल वैज्ञानिक दृष्टि से संबंधित न हो।

शुक्ल जी (Ram Chandra Shukla) का स्पष्ट मत है कि कविता केवल वस्तुओं के ही रंग रूप में सौंदर्य की छटा नहीं दिखाती बल्कि कर्म और मनोवृत्ति के भी अत्यंत मार्मिक दृश्य सामने रखती है। इससे स्पष्ट है कि उनके साहित्यशास्त्र में कर्म सौंद्र्य की भी अनिवार्य प्रतिष्ठा है। शुक्ल जी साहित्य को साध्य नहीं मानते बल्कि वे लोक मंगल के साधन के रूप में उसकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं।

आचार्य शुक्ल (Ram Chandra Shukla) ने भारतीय काव्यशास्त्र के अनेक सिद्धांतों, शब्दशक्ति, रस, रीति, अलंकार आदि को आलोचना के लिए नितांत उपयोगी समझा और बताया कि देशी-विदेशी, नई-पुरानी सभी तरह की कविताओं की समीक्षा का मार्ग इनकी सहायता से सुगम होगा। इसीलिए शुक्ल जी ने नये विचारों और परंपराओं के जरिए इन पद्धितियों की उन्नति और समृद्धि पर बल दिया।

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आचार्य शुक्ल (Ram Chandra Shukla) 2 फरवरी 1941 को हृदयगति रुकने की वजह से हिंदी साहित्य का ये सितारा अनन्त आकाश में सदा के लिए दैदीप्यमान हो गया। शुक्ल जी के स्वर्गवाश के बाद उनके संबंध में महाप्राण निराला की लिखी हुई ये पंक्तियां आचार्य शुक्ल के महत्व को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि आचार्य शुक्ल छायावाद और विशेषकर निराला के प्रति सहृदय नहीं थे और तब निराला की इन पंक्तियों का महत्व और बढ़ जाता है। निराला की ये पंक्तियां हिंदी समालोचना के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल के महत्वपूर्ण योगदान को वस्तुनिष्ठ ढंग से रूपायित करती है। आचार्य शुक्ल से पहले हिंदी आलोचना की दशा-दिशा को ध्यान में रखने पर इन पंक्तियों का महत्व समझ में आ जाएगा।

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