नारद मुनि की प्रेरणा से खूंखार डाकू बना महर्षि वाल्मीकि, प्रभु श्रीराम से हुई भेंट

Maharshi Valmiki

Maharshi Valmiki Jayanti 2019 : संपूर्ण विश्व में भारत की पावन पुण्य धरा है जिस पर आदिकाल से महापुरुष, ऋषि-मुनि व महान वैज्ञानिक, विचारक व समाज सुधारक अवतरित हुए। उन्होंने अपने तपोबल व विलक्षण व्यक्तित्व और कृतित्व द्वारा मानव समाज का मार्गदर्शन किया।

Maharshi Valmiki

प्राचीन वैदिक काल की महान विभूतियों की प्रथम श्रेणी में थे महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki)। संस्कृत भाषा के आदि कवि और विश्वविख्यात हिन्दू महाकाव्य ‘रामायण’ के रचयिता वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) एक महायोगी थे। महर्षि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) का जन्म आश्विन मास की पूर्णिमा को नागा प्रजाति में हुआ था। उनके पिता का नाम वरुण और मां का नाम चार्षणी था। वह अपने माता-पिता की 10वीं संतान थे।

रामायण के रचयिता

प्रभु श्रीराम और मां सीता की कथा का विवरण ही ‘रामायण’ है। जिस कवि ने महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की और उसकी कथा और गीत लव-कुश को सिखाये, वे महामुनि ‘वाल्मीकि (Maharshi Valmiki)’ थे। उनकी रामायण संस्कृत भाषा में है। यह एक अत्यंत सुंदर काव्य है। किसी महानायक की कथा का लंबी कविता के रूप में वर्णन को महाकाव्य कहा जाता है।

श्रीरामचन्द्र जी ने भी जब स्वयं ‘रामायण’ की कथा सुनी थी तो उन्हें अत्यंत आनंद की अनुभूति हुई। जब लव और कुश ने अपने मधुर स्वर में यह कथा उन्हें गाकर सुनाई तो श्रीराम आनन्द विभोर हो। लेकिन तब रामचंद्र जी यह नहीं जानते कि वे दोनों बालक उनके ही पुत्र है। वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) किस प्रकार से मुनि और गायक-कवि बने, यह अपने आप में एक अद्भुत संयोग है।

बांबी से बाहर

वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) नाम उनके माता-पिता द्वारा दिया गया नाम नहीं था। उनका वास्तविक नाम रत्नाकर था। संस्कृत में वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) का अर्थ ‘बांबी’ होता है। कहा जाता है कि उनके एक बांबी से निकलने के कारण ही उनका नाम वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) पड़ा। इसके पीछे एक रोचक कथा है। श्री राम त्रेता युग में अवतरित हुए और वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) भी इसी युग में पैदा हुए थे। उस समय गंगा नदी के किनारों पर घना जंगल था। अनेक ऋषियों ने अपने आश्रम वहां बना लिए थे जहां वे ईश्वर की भक्ति, सत्य की प्राप्ति के लिए तपस्या करते। उनमें एक प्राचेतस नाम के मुनि भी थे। उनका एक पुत्र था रत्नाकर। जब रत्नाकर बहुत छोटा था तो वह एक दिन जंगल में निकल गया। खेलते-खेलते जब वह रास्ता भूल गया तो रोने-चिल्लाने लगा। उसी समय एक शिकारी उधर से निकला। जब उसने उस नन्हें से बच्चे को रोते देखा तो प्रेमपूर्वक गोद में उठाकर उसे चुप कराया। उस शिकारी का कोई बच्चा नहीं था। वह रत्नाकर को जंगल के बीच बनी अपनी कुटिया में ले गया।

इतिहास में आज का दिन – 13 अक्टूबर

इधर जब रत्नाकर घर नहीं लौटा तो उसके पिता प्राचेतस मुनि बहुत चिंतित हो गये। उन्होंने आश्रम के चारों ओर और जंगल में अपने पुत्र की बहुत खोज की लेकिन उसे पाने में असफल रहे। अंत में उन्होंने और उनकी पत्नी ने मान लिया कि रत्नाकर किसी जंगली जानवर का शिकार हो गया है। शिकारी और उसकी पत्नी ने रत्नाकर का प्रेमपूर्वक पुत्र-तुल्य पालन-पोषण किया। धीरे-धीरे रत्नाकर अपने वास्तविक माता-पिता को भूल गया। उसने शिकारी दम्पति को ही अपना पिता माता समझ लिया। शिकारी ने उसे शिकार खेलने का कौशल सिखाया। रत्नाकर एक चतुर व बुद्धिमान बालक था और जल्दी ही उसने धनुर्विद्या में प्रवीण होकर शिकार करना सीख लिया। अब वह अचूक निशानेबाज शिकारी बन गया।

जब रत्नाकर युवा हुआ तो उसके दत्तक पिता ने शिकारी परिवार की एक सुंदर कन्या ढूंढ कर उसका विवाह करा दिया। कुछ ही वर्षों में उसकी पत्नी ने कुछ बच्चों को जन्म दिया और इस प्रकार रत्नाकर का परिवार बढ़ने लगा। रत्नाकर के लिये अपने बढ़ते परिवार के लिए राशन कपड़ा आदि जुटाना बहुत कठिन हो गया था। केवल शिकार द्वारा परिवार का भरण-पोषण कर पाना संभव था। इस अभावग्रस्त स्थिति कारण वह सदा चिन्तित रहने लगा।

रत्नाकर से वाल्मीकि (Maharshi Valmiki)

Maharshi Valmiki

एक दिन रत्नाकर सड़क के किनारे अत्यंत चिंताग्रस्त मुद्रा में बैठा था। उसी समय नारद मुनि उधर से निकले। उनके हाथ में एक सुन्दर वीणा थी। वीणा बजाते हुए वे ईश्वर की प्रार्थना करते जा रहे थे। नारद जी कोई साधारण पुरुष नहीं थे। वे तो देवर्षि थे। उन्होंने धरती, आकाश और पाताल-तीनों लोकों का विचार किया था। अचानक उनकी दृष्टि रत्नाकर पर पड़ी। उसके चेहरे पर व्यथा व चिंता के लक्षण स्पष्ट दिख रहे थे। नारद मुनि ने सहानुभूतिवश रत्नाकर से उसकी व्यथा का कारण पूछा। नारद जी की करुणामयी वाणी सुनकर रत्नाकर को कुछ सांत्वना मिली। उनके मुख मण्डल पर एक दिव्य तेज व सौंदर्य था। जैसे-जैसे रत्नाकर नारद मुनि के कोमल, सुन्दर और ओजपूर्ण चेहरे को निहारता गया, उसमें भी एक विलक्षण भाव का संचार होने लगा। नारद जी एक पेड़ के नीचे बैठकर वीणा बजाते हुए ईश्वर की प्रार्थना करने लगे। रत्नाकर उनसे कितना प्रभावित हुआ था, यह स्पष्ट झलक रहा था।

नारद मुनि ने बीच में रुक कर उससे पूछा- ‘तुम्हारे जीवन का क्या उपयोग होना चाहिये? इस पर तनिक विचार करो । केवल अपने परिवार के भरण-पोषण तक ही अपने जीवन को सीमित रखना उसे अखरने लगा। यह कार्य तो सभी जीव करते हैं। जानवर-पक्षियों व वन्य प्राणियों की भी यही दिनचर्या है। यह भाव उसे रह-रह कर मानो झकझोर रहा था। मैं क्या कर सकता हूँ, महाराज? मेरा एक बड़ा परिवार है जिसमें मेरे बुढ़े माता-पिता, पत्नी और बच्चे हैं। वे सब मुझ पर ही आश्रित हैं। मुझे उनके लिए भोजन और कपड़ा जुटाना पड़ता है। मुझे केवल शिकार करना ही आता है। इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर सकता।’ रत्नाकर ने उत्तर दिया।

नारद जी ने रत्नाकर से कहा, ‘तुम राम नाम का जाप करो। इससे तुम्हारे जीवन का विकास होगा और नर से नारायण बनने का यही मार्ग है। इसी में तुम्हारे जीवन की सार्थकता है।’ अब रत्नाकर ने अनुभव किया कि मात्र अपने व अपने परिवार के पालन पोषण के लिए सामग्री जुटाना पर्याप्त नहीं है। रत्नाकर राम नाम का उच्चारण करते हुए तपस्या करने लगा। उसकी आंखें बंद थी और पूरा ध्यान भगवान के नाम के उच्चारण पर केंद्रित रहता था। धीरे-धीरे वह अपना अस्तित्व भूल गया। इसी प्रकार ध्यानावस्था में दिन, महीने और अनेक वर्ष बीत गये उसके चारों ओर दीमकों ने बांबी (घर) बना ली जिसके कारण कोई उसे देख भी नहीं सकता था। कुछ वर्षों के पश्चात् नारद मुनि फिर वहां आए। वे जानते थे कि बांबी के नीचे रत्नाकर ही है। उन्होंने सावधानी से बांबी को साफ किया। रत्नाकर को आस-पास की कोई सुध नहीं थी और वह अपनी तपस्या में खोया रहा। जब नारद जी ने उसके कान में राम नाम का उच्चारण किया, तब कहीं उसने अपनी आँखें खोली और सामने नारद जी को पाया। उसने बैठे-बैठे ही नारद जी को प्रणाम किया। नारद जी उसे उठाकर धीरे-धीरे उसके शरीर पर हाथ फेरने लगे। अब रत्नाकर में स्फूर्ति आई। उसने फिर नारद जी के चरण स्पश किये।। मुनि ने उसे गले से लगा लिया और कहा-‘रत्नाकर, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ। भगवान् तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुए। आज से तुम श्रेष्ठ ब्रह्म ऋषि हुए। चूँकि बांबी (वाल्मीकि (Maharshi Valmiki)) से तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है इसलिए तुम वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) के नाम से प्रसिद्धि पाओगे।’ यह सुनकर रत्नाकर की आंखों से भावपूर्ण आंसू बहने लगे। वह बोला- ‘महाराज, यह सब आपकी ही कृपा है। अच्छे लोगों की संगति से ही मनुष्य ऊपर उठता है। यह केवल आपके मार्गदर्शन व प्रेरणा से संभव हुआ है। नारद जी ने उसे आशीर्वाद दिया और अपने रास्ते चले गये।

श्री राम से मिलना

Maharshi Valmiki

वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) ने गंगा नदी के किनारे अपना आश्रम बनाया उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैलने लगी। कई अन्य मुनिगण भी अपने परिवार सहित उनके आश्रम में आ कर उनके शिष्य बन गये। एक दिन श्रीरामचंद्र जी अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ आश्रम में आये। वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) बड़े उत्साहपूर्वक उनसे मिले। शिष्यों ने उन्हें हाथ पैर धोने के लिए पानी दिया और बैठने के लिए आसन बिछाया। खाने के लिए अतिथियों को ताजा दूध और स्वादिष्ट फल दिये गये। कुछ विश्राम के बाद श्रीरामचंद्र जी ने ऋषि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) को अपनी कहानी सुनाई। उन्होंने बताया कि वे जंगल में इसलिए आए हैं ताकि अपने पिता की प्रतिज्ञा को पूरा कर सकें। यह सुनकर वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- ‘श्रीराम,  आप जैसा सत्यवान धरती पर दूसरा कोई नहीं है। अपने पिता का वचन पूरा करने के लिए आपने राज सिंहासन त्याग दिया और जंगल में आ गए आप सामान्य मनुष्य नहीं, सर्वशक्तिमान हैं। आपके नाम में इतनी शक्ति है कि उसने मुझ जैसे एक तुच्छ शिकारी को ब्रह्म ऋषि बना दिया। आपकी करुणा व दया अथाह है।’ श्रीरामचंद्र जी यह सुनकर मुस्कुराए और बोले- ‘हे महामुनि, हम यहां आपके आश्रम में रहने के लिए आये हैं, कृपया हमें उचित स्थान बतायें।’ आश्रम के निकट ही चित्रकूट पर्वत था। वह रमणीय स्थल था और अनेक प्रकार के फल-फूलदार वृक्षों से भरा हुआ था। उन्होंने यही स्थान श्रीरामचंद्र जी को बताया। श्रीरामचंद्र जी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ कुछ समय तक चित्रकूट में रहे।

ऋषि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) की कहानी बड़ी अनूठी और अर्थपूर्ण है। नारद मुनि के संपर्क व प्रेरणा से वे सामान्य जन ‘रत्नाकर’ से एक महान ऋषि, संत व योगी बने और विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की। ऋषि वाल्मीकि (Maharshi Valmiki) कृत यह ग्रन्थ अनन्त काल से प्रत्येक घर में बड़ी श्रद्धा, स्नेह व आस्था पूर्वक सुना-सुनाया जाता है। ऐसे विलक्षण थे महातपस्वी व भारतीय महाकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि ।

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